पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६५२

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एकादशाध्याय ६४९ से बच जाता है ।।५।। जैसे अश्वमेध यन मव यही में श्रेट और सब पापों को दूर करने वाला है. वैसे ही सब पापा का दूर करने वाला यह अधमर्पण सूक्त है ।।२६०|| इत्या लोकानपीमांस्त्रीनश्नन्नपि यतस्ततः । ऋग्वेद धारयन्चियो नैनः प्राप्नोति किंचन ॥२६१|| ऋक्संहितांत्रिरम्यस्य यजुपां वा समाहित । साम्नां चा सरहस्यानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥२२॥ इन तीन लोकों को मारकर और जहां तहां के भी अन्न का भोजन करता हुवा ऋग्वंट को धारण करने वाला विन कुछ पाप को नहीं प्राप्त होता (यह ऋग्वेद धारण की अत्युक्ति से प्रशमा मात्र है । यथार्थ नहीं जान पड़ती। अमम्भत्र सी भी है) ॥२६|| अफसंहिता वा यजु.मंहिता अथवा सामसंहिता की ब्राह्मणोपनिष- दादि सहित समाहितचित्त होकर तीन आवृत्ति करने से साफ पानी से बच जाना है IRAI यथामहादं प्राप्य क्षिप्र लोट' विनश्यति । तथा दुश्चरितं सर्व वेदे त्रिवृति मज्जति ॥२६३|| ऋचोयजपि चान्यानि सामानि विविधानि च । एपज्ञेयस्त्रिबुद्ध दो योवेदैनं स वेदवित् ।।२६४॥ जैसे बड़ी नदी में डाला हुआ ढेला गल जाता है वैसे सम्पूर्ण पाप त्रिरावृत्ति वेद में डूब जाता है (यह भी वेदों की प्रशंमा IRE३|| ऋग्यजु और साम के नाना प्रकार के मन्त्र, यह त्रि- द्वद जानने के योग्य है। जो इसकी जानता है वह वेदलिन् है।