पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६५५

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६५२ मनुस्मृति भापानुवाद युक्त कर्म का चलाने वाला मन को जानो । यहां से कर्मफल कहते हुवे क्रमपूर्वक मोक्ष का वर्णन करेंगे) ||४|| परद्रव्येष्वमिध्यानं मनसाऽनिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशव विविध कर्म मानसम् ॥५॥ पारुष्यमनृतं चैव पैशून्यं चापि सर्वशः । असंबद्धप्रलापन चाङ्पयं स्याश्चतुर्विधम् ॥६॥ अन्याय से परद्रव्य लेने की इच्छा और मन से (पराया चुर चाहना तथा "परलोक में कुछ नहीं है ऐसा विश्वास बहती प्रकार का मानस (पाप) कर्म है ।।५।। कठोर और असत्यभापण तथा सब प्रकार की चुगली और असम्बद्ध वकवाद करना, यह चार प्रकार का वाड्मय (पाप) कर्म है ||६|| अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवा विधानतः । परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ॥७॥ मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाशुभम् । वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम् | ८|| अन्याय से दूसरे का धन लेना और शास्त्र के विधान (दण्ड- नीयः = वध्य के अधादि) से अतिरिक्त हिंसा तथा दूसरे की स्त्री से गमन करना, यह तीन प्रकार का शारीरिक (पाप) कर्म है || मन से किये हुवे शुभ अशुभ कर्मफल का मन ही से, वाणी से किये हुवे का वाणी से और शरीर से किये हुवे का शरीर ही से यह (पाणी) भाग करता है। ८३ से आगे एक पुस्तक में यह श्लोक अधिक मिलता है:- [त्रिविधं च शरीरेण वाचा चैव चतुर्विधम् ।