पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६५६

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द्वादशाऽध्याय मनसा त्रिविध कर्म दशा धर्मपथांस्त्यजेद ॥ ३ प्रकारका शारीरिक.४ प्रकार का वाचिक और ३ प्रकार का मानसिक यह १० अर्स के मार्ग त्यागने चाहिये) lal शरीरजै. कर्मदापति स्वारस्वां नरः । याचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिवाम् ॥६॥ शरीर के कर्मदापों से मनुष्य वृक्षादि योनि और वाणी के कर्म दोष मे पत्नी और मृग की योनि तथा मन के क्रमदापों से चण्डा- लानि कुल में उत्पत्ति पाता है।। (९३ श्लोक से आगे ४ पुस्तको में यह श्लोक अधिक है। [शुभैःप्रयोगर्दैवत्वं व्यामिश्रेर्मानवा भवेत् । अशुभैः केवलेश्व तिर्यग्यानिषु जायते ॥१॥ शुभ कमा से देवभाव शुभाशुभ मिनिता से मनुष्य भाव को प्रामि और केवल अनुमों से नीच योनियों में जन्म पाता है ।। एक अन्य पुन्नक महित ५ पुस्तकों में निम्नलिखित श्लोक और भी मिलता है:- वाग्दएडो हन्ति विज्ञानं मनोदण्डः परांगतिम् । कर्मदण्डस्तु लोकांस्त्रीन्हन्यादपरिरक्षितः ॥RI] बिना रक्षा क्रिया हुवा बाग्दण्ड विधान का. मनादण्ड परम- गति को और कर्मदए तीनो लोकों को नष्ट करता है। तया एक अन्य पुस्तक सहित छ. पुन्तको में यह श्लोक और भी पाश जाता है:- बाग्दण्डोऽय मबेन्मौनं मनोदण्डस्त्वनाशनम् । शरीरस्य हि दण्डस्य प्राणायामो विधीयते ॥३॥!.