पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६५९

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६५६ मनुस्मृति भाषानुवाद तेनानुभूयता यामीः शरीरेणेह यातनाः । तास्वेव भूतमात्रासु प्रलीयन्ते विभागशः १७ सोनुभ्यासुखोदर्कान्दापाविषयसङ्गजान् । व्यपेतकन्मपोभ्येति तावेवाभौ महौजसौ १८ उस शरीर से यम की दी हुई यातनाओ का यहां भोग कर प्राणी उन्हीं भूत मात्रा में विभाग से फिर छिप जाते हैं ॥१७॥ वह प्राणी निपिद्ध विपयों के उपभोगजनित दुखो को भोग कर पाप को दूर करके घड़े पराक्रम बाले उन्ही दोनो (महान् और क्षेत्रज्ञ) को प्राप्त होता है ॥८॥ तौ धर्म पश्यतस्तस्य पापं चातन्द्रितौ सह । याम्पां प्राप्नोति संपृक्तलेहच सुखासुखम्॥१६॥ यद्याचरति धर्म से प्रायशोऽधर्ममन्पशः। तैरेव चावृतो भूतैः स्वर्गे सुखमुपाश्नुते ॥२०॥ वे आलस्यरहित (महान और क्षेत्रम दोनो) उस प्राणी के पुण्य और पाप को साथ र देखते हैं जिन से मिला हुवा इस लाक तथा परलोक में सुख और दुख को प्राप्त होता है ।।१९।। वह जीव यदि अधिक धर्म कर्म करता है और अधर्म न्यून, तो उनही उत्तम पञ्चभूतो से युक्त स्वर्ग मे सुख को भोगना है।।२०॥ यदि तु प्रायशोधर्म सेवते धर्ममल्पशः । तैभूतैः स परित्यक्तो यामी प्राप्नोति यातना:२१॥ यामीस्ता यातना प्राप्य सजीवो बीतकल्मषः । तान्येव पञ्चभूतानि पुनरप्चेति भागशः ॥२२॥