पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६६०

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द्वादशाऽध्याय और यदि वह जीव पाप अधिक और पुण्य थोड़ा करे तो उन उत्तम भूतों से त्यक्त हुवा यम की यातनाओं को प्राप्त होता है ।।२१।। उन यम की यातनाओ को प्राप्त होकर वह जीव (भाग से) पापरहित होने पर फिर उन्हीं उत्तम पंचभूता को कम से प्राम हो जाता है ॥२२॥ एता दृष्ट्वास्य जीवस्य गति: स्वेनैव चेतसा । धर्मताऽधर्मतश्चैव धर्मे दध्यात्सदा मनः ।२३ सत्त्वं रजस्तमश्चैव त्रीविद्याक्षात्मनो गुणान् । याप्येमास्थितो भावान्महान्सर्वानशेपतः||२४॥ इस जीव को धर्म और अधर्म से इन गतियो को अपने मन से ही देख कर सर्वदा मन को धर्म में लगा ॥२३॥ सत्वगुण रजोगुण तमोगुण इन तीनो का आत्मा (प्रकृति) के गुण जाने जिन से ज्याप्त हुवा यह "महान् स्थावर जगमरूप सम्पूर्ण भावों को अपना से व्याप कर स्थित है ।।२४॥ यो ययां गुणोदेहे साकन्येनातिरिच्यते । स तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम् ॥२५॥ सच्च ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वपी रजस्मृतम् । एतद्व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः ॥२६॥ जिस शरीर में गुणों में से जो गुण पूरार जब अधिक होता है तब वह उस प्राणी को उसी गुण के अधिक लक्षणयुक्त कर देता है |२५|| यथार्थ वस्तु का जानना सत्र का लक्षण और उस के विपरीत न जानना प्रधानसम का और रागद्वप रज के