पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६६

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प्रथमाऽध्याय ६३ . i पूर्व छः मन्वन्तर बीत चुके थे। तो छ मन्वन्तर बीतने पर इस भृगु को उपदेश करने वायम्भुव मनु कहां से आया इन श्लोकी का यह कहना असत्य है कि मनु वंश मे कोई देहधारी मनु नामक मनुष्य हुवे और उन्होंने अपनी २ प्रजा बनाई। ७१ चतुर्युगियों का १ मन्वन्तर आगे श्लोक ७९ मे कहेगे। फिर कोई राजा इतने दिनों तक कैसे वर्तमान रह सकता है। पुराणों में सहायुग मे एक लक्ष त्रेता मे १० सहस द्वापर मे एक सहस और कलि में १०० वर की आयु लिखी है । यह भृगु तो उस से भी आगे बढ़ गया । मन्वन्तर किसी पुरुप का नाम भी नहीं है किन्तु जैसे सत्ययुग श्रादि चार युग काल की संबा है वैसे मन्वन्तर भी, आगे ७९३ श्लोक मे कहे प्रमाण, ७१ चतुर्युगियों के बराबर काल की संज्ञा हैं। काल के नाम पर राजा का नाम सम्भव माने तो भी एक मनु के वंश मे दूसरा मनु कैसे रहे। और इतने दीर्घ काल तक एक २ पुरुष की आयु कैसे रहे । क्यों कि ६३ वे श्लोक में (स्ने खेन्तरे) कहा है कि अपने २ काल के अन्तर (मन्वन्तर) मे उस मनु ने अपनी २ प्रजा रची और पाली । और मन्वन्तर का वर्णन काल के विभागो (निमेष से लेकर ) को बतलाते हुए ७९ ३ श्लोक में श्रावेगा। फिर निमेष काटा, कला, मुहूर्त, दिन, रात वर्प, युग इत्यादि के पश्चात् वर्णन करने योग्य मन्वन्तर का यहां प्रथम ही वर्णन करना असङ्गत और पुनरुक्त भी है । श्लोक ५९ मे (अशेषतः) (सर्वम् ) (अखिलम् ) यह तीन पद एक ही अर्थ में पुराणों की शैली के से व्यर्थ भी हैं)। निमेपा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कला । निराकला मुहूर्तः स्थानहोरात्र तु तात्रतः ॥६४॥ (सृष्टि का समय जानने के लिये समय की संज्ञा निरूपण