पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६६२

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द्वादशाऽध्याय विषयापसेवा चाजस्र राजसं गुणलक्षणम् ॥३२॥ वेद का अभ्यास तप, ज्ञान शौच इन्द्रिय का निग्रह धर्मक्रिया और आत्मा का मनन, ये सत्वगुण के लक्षण है ॥३१॥ आरम्भ में रुचि होना फिर अर्य, निषिद्ध कर्म को पकड़ना और निरन्तर विश्यमोग, यह रजोगुण का लक्षण है ॥३२॥ लोम:स्वप्नोतिः क्रौर्य नातिनं मिनवृत्तिता । याचिष्णुता प्रमादश्च ताम गुणलक्षणम् ॥३३॥ त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां त्रिषु तिष्ठताम् । इदं मामामिकं ज्ञेयं क्रमशो गुणलक्षणम् ॥३४॥ लामी नींद, अधीरता, क्रूरता, नास्तिकता, अनाचारीपन, याचनस्वभाव और प्रमाद, यह तमोगुण का लक्षण है ॥३॥ इन तीनों (सत्यादि ) गुणों का, जो कि तीनों में रहने वाले हैं, यह क्रम से मक्षित गुण लक्षण जानना चाहिये कि-||३४|| यत्कर्म कत्रा कुर्वश्च करियश्चैव लज्जति । तज्जेणं विदुपा सर्व तामसं गुणलक्षणम् ॥३॥ येनास्मिन्कर्मणा लोके ख्यातिमिच्छति पुष्कलाम्। न च शोचत्यामचौ तद्विनेयं तु राजसम् ॥३६॥ जिस कर्म को करके और करते हुवे और आगे करने का विचार करते हुवे ( तीनों काल में) लब्जा करता है, उस सब की विद्वान तम का लक्षण जाने ॥३५|| जिम कर्म से इस लोक में बड़ी प्रसिद्धि को चाहता है और असम्पत्ति (असिद्धि) में शोक नहीं करता, उसको राजस जाने ॥३॥