पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६६३

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६६० मनुस्मृति भाषानुवाद यत्सर्वेणेच्छति ज्ञातु यन्त्र लज्जति चाचरन् वेन तुष्यति चात्मा स्य तत्सत्वगुणलक्षणम् ॥३७॥ तमसलक्षणं कामोरजसस्त्वर्थ उच्यते । सवस्य लक्षणं धमः श्रेष्ठयमेषां यथोत्तरम् ॥३८॥ जिस कर्म को सर्वथा जानने के लिये इच्छा करता है और जिस कर्म को करता हुवा (तीनों काल में) लज्जित नहीं होता, तथा जिस कर्म से इसके मन को श्रानन्द हो, वह सत्वगुण का लक्षण है ॥३०॥ तम का प्रधान लक्षण काम है और रज का प्रधान लक्षण अर्थ कहाता है. तथा सत्व का प्रधान लक्षण धर्म है। इन में उत्तरोत्तर अहता है ।।३८॥ येन यस्तु गुणेनैषां संसारान्प्रतिपद्यते । तान्समासेन वक्ष्यामि सर्वस्यास्य यथाक्रमम् ॥३६॥ देवत्व साचिकायान्ति मनुष्यत्वं च राजसा। तिर्यक्त्व तामसानित्यमित्येपा त्रिग्धिा गतिः॥४०॥ इन सत्वादि गुणो मे जिस गुण से जीव जिस गति को प्राप्त होता है, इस सब के उस गुण को संक्षेप से यथाक्रम कहता हूं- ॥३९॥ सात्विक देवत्व को और राजस मनुष्यत्व को तथा तामस सदातिर्यक् योनि को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार तोन प्रकार की गति है।॥४०॥ त्रिविधा त्रिविधैपा त विज्ञेयागौणिकीगतिः । अधमामध्यमा श्रया च कर्मविद्याविशेषतः ॥४१॥ स्थावराः कृमिकीटाच मत्स्याः सः सकच्छपाः ।