पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १३८ ) ठहर ठहर कर कोई दीवार ठोक रहा था। कुछ देर ध्यान से सुन कर हरसरन ने भी उगली से ठोका। "टिक, टिक, टिक !!" उधर से आवाज आई, "क्या तुम भी कोई कैदी हो ?" हरसरन के मुख पर उसके स्वाभाविक शब्द आये होठ फड़के पर उमने उन्हें रोक कर कहा- हाँ, और तुम ?" 'मैं भी, मुझे खड़ी बेड़ी दी गई हैं। क्या तुम किसी राजनैतिक मामले में हो?" "हाँ और तुम ?". “मैं भी, तुम्हारा नम्बर ?" "३० और तुम्हारा ?" "१८, क्या तुम्हें बाहर का कुछ समाचार मिलता है ?" "नहीं और तुम्हे ?" "मुझे मिलता है, मैंने चालाकी से काम लिया है । तुम कब से इस कोठरी में हो ? नौ दिन से, और तुम ?" : "मुझे चौथा दिन है, चुप कोई आता है।' "तुम्हारा भला हो। हर सरन चुप हो गया। आधीरात बीत गई। जेल में सन्नाटा था, हरसरन मच्छरों