"कुछ नहीं "अब शायद हमारी मुलाकात नहीं होगी।" "क्यों ? "मैं आज ही रात को दूसरी जगह भेज दिया जाऊंगा, ऐसा प्रतीत होता है। "और सबूत "सबूत देखना चाहते हो। ?" "नहीं, कदापि नहीं, जाओ, मुलाकात की कुछ जरूरत नहीं ?". हरसरन वहाँ से हट अाया। दो तीन बार टिक टिक टिक शब्द हुआ । हरसरन ने वहाँ कान नहीं दिया। वह दोनों हाथों पर सिर रख कर ओंधे मुँह पड़ रहा । वह कुछ सोच रहा था। उसके मस्तिष्क में सारे शरीर का खून इकट्ठा हो गया था। वह मानो जेल की छत, आकाश, स्वर्ग, सूर्य मण्डल, ब्रह्माण्ड सभी को भेदन करके ऊँचा, और ऊँचा उड़ा चला जा रहा था। दिन निकल आया । पर हरसरन उसी दशा में पड़ा रहा । उसके कपड़े फट गये थे और शरीर क्षत विक्षत हो गया था। उसने तीन दिन तक कुछ खाया न था। वह दिन भर यों ही पड़ा रहा। बीच में डाक्टर और जेल के अधिकारी उसे देखने आये । वह किसी से भी कुछ न बोला
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