पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/१६

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( ७ ) बाहुओं के बल की इतनी प्रशंसा थी कि जिन से उपार्जित भोगों को संसार ने भोगा था वे ऐसी सूख गयी हैं ! इन्हीं पैरों से तुम ने जल थल और आकाश के द्वारा भूमन्डल की यात्रा की थी ? पर अब इन से उठ भी नहीं सकते। हाय ! यह कैसी दशा है ? प्यारे स्वदेश ; न रोओ तो करो भी क्या ? तुम्हारी वह झलक एक बार, सिर्फ एक बार यदि किसी तरह दीख जाय तो उस पर में सर्वस्व वार दूंगा । दिखाओगे क्या ? जिन्होंने तुम्हारा यौवन लूटा था वे कैसे निर्दयी थे ? ऐसी सरलता ! ऐसी उदारता ! ऐसी महत्ता ! वीरता! क्षमता ! यह सब अलौकिक देख कर भी उनके हृदय में तुम्हारी भक्ति न हुई, उन्होंने तुम्हें न समझा । पहिले तो तुम्हारी सरलता और उदारता से लाभ उठाया, पीछे लूट मचाई । जब कुछ न रहा तो लात मार कर छोड़ दिया । गज़ब किया ! सितम किया ! उस समय मैं न था! हाय ! मैं न था !! यह सच है कि मैं तुच्छ हूँ, अशक्त हूँ, अबोध हूँ। पर उस समय मैं अपनी सब शक्तियों की बलि कर देता। मैं अपनी आत्मा की बाजी लगा देता । मैं अपने हृदय का खून बहा देता । मैं तुम्हारे बदले उनका अत्याचार सहता, इतनी धीरता से सहता कि वे घबरा जाते, थक जाते अत्याचार करना ही भूल जाते, उससे उन्हें घृणा हो जाती।