( १६०) धैठे थे । इर्द-गिर्द लीडर और लीडरनियाँ थी भी। बहुत-सी बातें हो रही थी, टर साहब की उस दिन की हेकड़ी की चर्चा जोरों पर थीं। एक ने कहा-"कमाल किया आपने । जब आप शेर के समान सीना तान कर उनके सामने खड़े हुए, तो देखते बनता था।" दूसरी एक महिला बोली-क्यों नहीं, मगर उसे इन पर हाथ उठाने की जुर्रत न हुई। तीसरे महाशय बोले --"क्या कहने हैं आपके ! नोक झोंक भी वह थी कि बाह ! पट्ठा कहने लगा, भाषण दो।" डिक्टेटर महाशय उंगलियों को पोर से सामने की टेबुल को ठक-ठक करते हुए कहने लगे--"मैं तो कौम का एक अदना खिदमतगार हूँ। मैं किस लायक हूँ।" टन टन्-टन् फोन की घंटी बजी । टर साहब ने फोन उठा कर कहा-"हलो. कौन है ?" "मैं पुलिस-थाने से बोल रहा हूं।" टर साहब ने आँखें कपार पर चढ़ाकर कहा-"पुलिस थाने से ?" मित्र मंडली ने चमक कर पूछा-"क्यापुलिस थाने से ?" "जी हाँ श्राप प्रसाद डिक्टेटर हैं न ?"
पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/१६९
दिखावट