पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/१७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १६६. ) "श्रजी, उसे तो इनाम दीजिए। उसी की बदौलस...." दारोगाजी आगे की बात भी गए। "तब मैं जा सकता हूँ?" डिक्टेटर साहब ने पूछा। "मैं कैसे कहूँ?" पार्टी उठकर चल दी। डिक्टेटर और पार्टी को ज्यों-का त्यों बैरंग वापस आते देब भीड़ ने फिर गगनभेदी इन्कलाब का नारा बुलंद किया। सजी मोटर में फिर आप बैठाए गए । सत्य बात को प्रकट करने की ज़रूरत नहीं समझी गई । जुलूस उसा शान से लौटा। लोग कह रहे थे-"आदमी नहीं, शेर है। इस पर हाथ डालने की सरकार जुर्रत ही नहीं कर सकती।" -::mmmmm