पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/११०

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(१०८)
[बीसवां
मल्लिकादेवी।

छोड़ कर नब्वाय के यहां चला गया। किन्तु हा ! अब मुझे विदित हुआ कि वह पुरजा जाली था और वह कर्म दुराचारी नव्वाब का ही था, तथा मुझे बड़ा भारी धोखा दिया गया ।

नरेन्द्र,-"उस पुरज में क्या लिखा था ?

वीरसिंह,-"उसका आशय यह था कि,-'आपही ने लोभ में पड़फर मंत्री और उनकी स्त्री को मार डाला है और उनकी कन्या तथा मेरी स्त्री को चुपचाप हरण कर लिया है। किंतु हा! उस पुरजे पर मैंने विश्वास करके यहांसे चलेजाना उत्तम समझा था। हा! मैं ऐसी बात विचारते ही बज्राघात से क्यों न मर गया ! हा! स्वामी की अभक्ति के लिये मुझे किस नरकाग्नि में अनतकाल तक कष्ट भोगना पड़ेगा ? अस्तु मैं निर्बुद्धिना के पशवी होकर बिना कहे सुने, जाफर नव्वाब के यहा रहने लगा,और आपसे वैरनिर्यातन की लालमा मिज हृदय में उत्तरोत्तर गुढ़ करता गया। पर हा! मैंने कैसा घणित फर्म किया ? नाथ, मेरा अपराध यदि न क्षमा होगा, तो मैं अभी आत्मघात करके प्रभु के श्रीचरणों में प्राणविसर्जन कर निजकृत पाप का प्रायश्चित्त करूगा।"

नरेन्द्र,-"हाय तुमने मूलही में बड़ी भूल की और उस पर विचार न किया। अस्तु, फिर तुम्हारा सशय क्योंकर दूर हुगा ?"

वीरसिंह,-'नाथ! मेरी स्त्री जीती है, उसीसे सब सत्य घटना मुझे विदित हुई और उसीके परामर्शानुसार दास अपराध क्षमा कराने के लिये आया है।"

नरेन्द्र -"तुम्हारी स्त्री जीती है, और तुम्हारा कुसंस्कार दूर हुभा, यह सुनकर हमारा चित आप्यायित हुआ ! और तुमने जो इतना पश्चात्ताप किया, इससे तुम्हारा प्रायश्चित्त भी होगया। हां अब यह बतलाओ कि तुम्हारी स्त्री कहा है ? और मत्री की स्त्रो और कन्या का भी कहीं पता है ?"

वीरसिंह,-" नाथ! वे सब निगपद अवस्था में कालयापन करती हैं, और शीघ्र ही आप उनसे मिलेंगे, पर मैं उनके विषय में अभी कुछ नहीं निवेदन कर सकता!"

नरेन्द्र,-"क्यों ! क्षति क्या है ? उनका अनुसंधान पाकर हम उनकी यथेष्ट सेवा करेंगे।"

धीर,-"प्रभो ! आप देवकल्प हैं। निश्चिन्त रहिए, उनलोगों