से भेंट होने में अब विशेष विलंब नही है । कह तो मैंही देता, पर मेरी स्त्री ने मुझे शपथ देकर इस वृत्तान्त के कहने से वारण किया है। अतएव मैं निरुपाय हूं, आगे जैसी आज्ञा!"
नरेन्द्र,-"यदि ऐसा है तो हम उस वृत्तान्त के सुनने के लिये कुछ भी अनुरोध नहीं करते; पर उन लोगों से कैसे भेंट होगी? तुम कैसे यह बात कहते हो !"
वीरसिंह,-"महाराज ! भेंट होने के अनंतर आप सब वृत्तान्त जान लेंगे!"
नरेन्द्र,-"खैर जाने दो! अब तुम्हारी यहां रहने की इच्छा है ?"
घीरमिह,-"जैसी आज्ञा हो, पर अभी मेरा यहीं रहना उत्तम होगा!
नरेन्द्र,-"शत्रु के यहां कालयापन करने में उत्तमता कैसी ?"
वीरसिंह,-"नाथ ! यदि मैं वहां रहूंगा तो वहां से आपको गुप्त वृत्तान्त और रहस्यमयी सूचना समय समय पर दिया करूगा और इससे आपका महोपकार और लाभ होगा ?"
नरेन्द्र,-"तुम जहां विश्वस्थ हो, उस स्वामी से विश्वासघात करोगे?"
वीरसिंह,-"सर्प की सेवा करने पर भी उसे काल जानकर सचेत ही रहना नीतिज्ञ का काम है।
नरेन्द्र,-"इस कार्य में क्या तुम्हारी प्रशंसा है! वीरों का क्या यही धर्म है !"
वीरसिंह,-"नाथ ! वह दुष्ट स्वामी नहीं,किन्त स्वामी का बैरी है, अतएव जबतक उस पर मेरास्वामिभाव था, तब तक मैने वैसाही निर्वाह किया,पर अब उसे मैं स्वामी कीदष्टि से नहीं देखना चाहता!"
यों कह वीरसिंह अभिवादन करके जिधर से आए थे,उधर ही चले गए और नरेन्द्रसिंह वहीं चिंता करते करते पदचालन करने लगे।
पाठकों को यहा पर एक बात और जान लेनी चाहिए कि नरेन्द्रसिंह के ऊपर जो मत्री के परिवार-विषयक जनरव फैलाया गया था, वह वीरसिंह ही का फर्म था। सो इस बात को भी उन्होंने नरेन्द्र पर प्रगट कर दिया था और उनसे अपने अपराध को क्षमा कराकर तब वे वहासे गए थे।
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