सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(११२)
[इक्कीसवां
मल्लिकादेवी।

पापपकङ्क में लिप्त होने का उपाय कर रहे हो और दाषी को निर्दोषी,तथा निर्दोषी को दोषी साव्यस्त करते हो।"

सैनिक,-"तो तुमलोगों के सर्वनाश का मूल कौन है ?"

सरला,-"तुगरल ! तुगरलख़ा!! पापमूर्ति तुगरल !!!"

सैनिक,-"ऐं ! यह क्या सच कहती हो?"

सरला,-"अभी तक तुम्हारा संदेह नहीं गया?"

सैनिफ,-"भई ! सरला ! सच कहो, यथार्थ पात क्या है ? "

सरला,-"यदि सत्यममाचार सुनने की इच्छा होतो इधर आओ!" यों कह कर सरला सैनिक का हाथ थाम कर उसे एक लता- मंडप में लेगई । वहां आध घंटे तक वे दोनों गदृश्य रहे । अनन्तर दोनो लताकुञ्ज के बाहर आए । उन दोनों में परस्पर क्या बातें हुईं,यह हमें ज्ञात नहीं है, अस्तु।

बाहर आकर सरला ने कहा,-"हां तो तुम सब घटनावली समझ गए न ? अब तो तुम्हारा भ्रम दूर हुआ न ?"

सैनिक,-"सरला! तुम्हारे इस उपकार से हम कल्पान्त तक ऋणी रहेंगे। तुमने हमें घोर पाप से बचाया। हा! कैसा अनर्थ हम करना चाहते थे ! यदि तुमसे भेंट न होती तो महापाप हमनेकिया होता,पर जितना पाप का अंश कर चुके,उसफा प्रायश्चित क्या है।"

सरला,-"सहज ही है। तुम अभी जाकर महाराज से सत्य सत्य अपना दोष स्वीकार कर उनसे क्षमा मांगो।"

सैनिक,-"धन्य सरला, तुम स्वर्गीय रमणी हो। हम अभी यह कार्य करते है। हा! अब तुम्हारे दर्शन कहां और कब होगे ? बतलाओ तो हम वहां आवें।"

सरला,-"कदापि नहीं ! अभी मेरी खोज मत करना, पर धैर्य ग्वखो. मुझसे शीघही मिलाप होगा ।"

सैनिक,-" तो अब हम यात्रा फरें ? सरला ! आज तुमने हमारा महा उपकार किया।"

सरला,-"कैसी बातें कहते हो,नाथ ! दासी ने अपना अर्तव्य कर्म ही किया ।"

इसके अनन्तर सैनिक ने सरला का कपोल चुम्बन करके प्रस्थान किया। सरला के नेत्रों में जल भर आए और वह पूर्ववत पुरुषवेश विन्यास करके वहांसे चली गई।