परिच्छेद ] बङ्गसरोजिनी । (१२१) -vvv. Arv.. प्रश्न,-"अच्छा जाने दीजिए, भला यह तो कहिए कि सरला को आपने कभी कुछ दिया है ? " उत्तर,-"हां, कुछ विशेष नही, केवल एक मुक्ता की सुमरनी 'और एफ जड़ाऊ कंगन । " पाठक! यह माला मंदिर में मल्लिका के नव साक्षात के अनतर दीगई थी; और कंगन दस्युभों से परित्राण करने के अननर सरला का महाराज ने दिया था। महाराज का इस प्रकार उत्तर पाते ही सहसा द्वार खुला और एक युवा पुरुष बाहर आ, हंस कर बोला,-"धन्य, महाराज! यही माप का स्वर-परिज्ञान है ? छिः | आपने प्रतारित होकर किसके संमुख अपना सब गुप्त भेद कह दिया! चीन्हते नहीं, मैं कौन हूँ ?" __यह सुनते और युवा को देखते ही नरेन्द्र की मुखाकृति विकृत हुई, घे स्तंभित होकर निनिमेष लोचनों से उस युवा की ओर देखने लगे और अन्त मे घबराकर बोले,-"तुम कौन हो?" युवा,-'नवाब का गुप्तचर!" नरेन्द्री-"हां! तो सावधान हो, प्रतारक, दुष्ट !" यह कहकर नरेन्द्र असि उत्तोलन करके प्रहार करने का उपक्रम करतेथे कि युवाने हसकर कहा,-"सावधान, महाराज!मैं अवला हूं!" नरेन्द्र,-"ऐं! क्या कहा ! अवला!!!" इस पर "हां! " कह कर उस युवा ने अपना वेश परिवर्तन करके प्रभामयी स्त्री का रूप धारण किया। यद्यपि वहां उस समय विशेष प्रकाश नही था, तथापि उसे चीन्ह कर महाराज ने अपने हाथ से खड्ग भूमि में फेंक दिया और हसकर कहा,-"सरला! तुम इतना भी जानती हो! धन्य ! तुम्हारी बुद्धिचातुरी से हम आज अतीव आप्यायित हुए । सरला ! आज तुम्हारे ही पुण्य प्रतोप से हमारा प्राण बचा।" ___ सरला यह सुनकर प्रसन्न होगई और क्षणभर के अनतर उसने व्यग्रता से पूछा,-"ऐं ! क्या कहा, महाराज! क्या हुआ ?" नरेन्द्र,-"आज ही हमारी मानवलीला समाप्त होचुकी थी, किन्तु बीरसिह ने रक्षा की।" यों कहकर नरेन्द्रसिह ने मार्ग को सम वृत्तान्त,जो आते समय
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