सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १२२, मल्लिकादेवी। [चौबीसवां wowww हुमा था, सरला से कह सुनाया । वीरसिंह का नाम और गुण सुनकर सरला के हर्ष की सीमा न रही। क्यों ? समझे पाठक ? क्षणभर में आत्मभाव गोपन करके वह बोली,-"महाराज! आप के समीप उपकार के ऋणपाश में हमलोग गाजन्म बंधी रहेंगी।" नरेन्द्र,-"क्यों व्यर्थ का बोझ हमारे सिर धरती हो! हमसे तुम्हारा क्या उपकार हुआ है ?" सरला.-"इसी प्रकृति के कारण तो आप देवता कहे जाते हैं !" नरेन्द्र ने हसकर कहा,-"परतुम्हारी दृष्टि में तोहमराक्षसही है!" सरला,-"छिः! यह क्या आप कहते है! मैने ऐसा कप समझो?" नरेन्द्र,-"ऐसा ही तुम समझती हो ! क्योंकि उसका यही प्रत्यक्ष प्रमाण है कि अब तक तुम हमें अविश्वासी समझ कर अपने प्रकृत परिचय से संतुष्ट नहीं करतीं।" ____ सरला,-"अवश्य ही, माज सब कुछ कह दूंगी, किन्तु उसके पूर्व एक बात जानने की इच्छा है।" नरेन्द,-"तुम्हारी इच्छा तो गाजन्म पूरी नहीं होगी ! अस्तु, जो इच्छा हो; सो कह डालो!" सरला,-"आपने मल्लिका को किस दृष्टि से देखा है और उसके सग कैसा बर्ताव करने की इच्छा है ?" ___ नरेन्द्र,-"सरले ! जिन नेत्रों में ससारमात्र की प्रेममाधुरी भरी हो, वेही नयन मल्लिका के ऊपर पतित हुए हैं । अध प्राण, मन,तन सभी उसके होचुके; शेष कुछ भी नहीं है, जिसे देकर अपना हार्दिक भाव हम प्रकट करें।" सरला,-"क्यों, महाराज ! क्या मल्लिका अधिक रूपवती है ? 'संसार में वैसी असख्य रमणी हैं, तब फिर आप उसी पर क्यों इतना आग्रह दिखाते हैं ? " . नरेन्द्र.-"यदि तुम हमारी आंखों से मल्लिका को देखती तो तुम्हें भी त्रैलोक्य में मल्लिका ही एकमात्र संदरी जंचती। और सुनो, प्रेम क्या रूप की परवा करता है ? जहां गुण न देखकर केवल रूपही के लिये प्रेम हो, यह विशुद्ध प्रेम नहीं,किन्तु पाशव-प्रणय है।" सरला,-"यह आपका अन्याय है। अज्ञातकुलशीला बाला पर हठात् आपको इतना आसक्त होना शोभा नही देता! यह कैसी नीति है!