पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिच्छेद । वणसरोजिनी। - ma- Vl Mov. परिन्य देंगे यदि दैवात् हमसे यह कार्य न हुआ तो इस भारमात्र शरीर को चिता के अर्पण कर किसी को अपना कायर कलेवर न दिखावेंगे। मा! आशीर्वाद दो कि इस कार्य मे हम सफलता प्राप्त करें। यों कहते कहते चीरावेश से नरेन्द्र की भुजा फड़कने और हदय धडकने लगा; नयन अरुण और मुख रक्तिमावर्ण हुआ, अड प्रत्यङ्ग स्फुरित और उत्साह द्विगुण बढ़ गया । वे सहसा उठ खड़े हुए । उनका अलौकिक भाव देखकर कमला कुछ मन में सशद्धित हुई; इस लिये उसने करुणापूर्वक नरेन्द्र को हाथ पकड़कर बैठाया और कहा,- ___ "वत्स ! शान्त होवो । तुम अमानुषिक कार्य साधन में समर्थ होगे, यह मुझे निश्चय है।" । नरेन्द्र,-"मां! एक भिक्षा है,यदि दया कर स्वीकार करिए।" कमला,-"कपा है, बेटा! तुम्हारी बात पयों न मानंगी!" नरेन्द्र,-" पिता माता का दर्शन खाली हाथ नहीं करना चाहिए, अतएव किंचित भेंट है, इसे स्वीकार करिए।" यों कह कर नरेन्द्र ने एक जवाहिरात का डब्या अपनी कमर में से खोल कर कमला के चरणों में रख दिया, जिसे वे अपने साथ लाए थे। ___ कमला अवाक होकर निर्निमेष लोचनों से नरेन्द्र की ओर देखने लगीं। उनका माराय समझकर नरेन्द्र ने नम्रता से निवेदन फिया,-"क्यों, मां! तुम तनय की सेवा के ग्रहण करने में विचार करती हो? यह क्या उचित है ! ___ कमला,-"बटा! इस सेवा को अभी रहने दो, क्षमा करो। फिर मैं इसे लंगी।" ___ नरेन्द्र,-"तो आपका इस अधम पर स्नेहमय पुत्र भाव नहीं है, क्या ! इससे हमें दुःख न होगा?" ___ कमला ने घबरा कर शीघता से कहा,-"वत्स ! यथेष्ट हुआ, माजमे तुम्हारे आगे अपना सब अहङ्कार और प्रतिज्ञा विस्मृत हुई।" नरेन्द्र,-"कैसी प्रतिज्ञा?" कमला,-"मेरी प्रतिज्ञा थी कि जबतक बैरी का प्रतिशोध न लंगी, तबतक किसी की सहायता ग्रहण न करूंगी, केवल अपने