( १३६ ) मल्लिकादेवी। [छबीसवां - निज के आभूषणों से कालक्षेप करूगी। सो आज मेरी वह प्रतिज्ञा भङ्ग हुई !” नरेन्द्र,-"मां ! आपकी प्रतिज्ञा कदापि दूर नहीं हुई।" कमला,-"यह कैसे?" नरेन्द्र,-"इसलिये कि सहायता दूसरे से ली जाती है। प्रत्युत पर कत्तक-सहायता, सहायता में परिणत है। और जब कि पुत्र काधर्म ही पिता-माता की सेवा करने का है, तो उस अवस्था मे पुत्र की सेवा, पिता-माता के निकट सहायता-पद-वाच्य कदापि नहीं होसकती। वस्तुतः हमने सहायता न करके आपकी यत्किचित सेवा की है; अतएव सेवा को सहायता कह कर भाप हमारा हृदय न दुखाइए।" कमला,-"बेटा ! हमें यह नहीं विदित था कि तुम यथार्थ ही देवकला हो, नहीं तो आज तक तुमसे मिले बिना मैं धीरज न धरती। अहा! तुम्हारी जितनी प्रशंसा सरला करती थी, तुम उससे भी अधिक शूर, वीर, सजन और धीशक्तिसम्पन्न हो।" नरेन्द्र,-"मां! आप क्यो मुझे लज्जित करती हैं। सरला की मातों का क्या ठिकाना है ? उसका स्वभाव ही है कि वह दूसरे की मिथ्या स्तुति किया करती है। ____सरला वहीं खड़ी खड़ी सच बातें मौन होकर सुनती थी। सो उसने अवसर देख कर कहा,-"देखो ! माँ ! मुझे ये कैसी कड़ी बात कहते हैं ! कमलादेवी और नरेन्द्र, सरला की भोर देख कर हँसने लगे और फिर कमलाने पूछा,-"कौनसी कडी बात कही गई,सरला।" सरला,-"मां! झूठा स्तुति करना तो भाटों का काम है। मैं क्या भाट हूं ? कैसी कड़ी बात !!! " कमला,-(हसकर) “हा! यात तो बहुत कड़ी है; पर मैं क्या करूं ? साली बहनोई की यातों में मैं कुछ नहीं कह सकती। तुम दोनों का जैसा व्यवहार हो, परस्पर समझ लो।" नरेन्द्र,-"सरला! देखो ! मां, यथार्थ निर्णय करती हैं।" सरला.-"चलो, जी! तुम्हें मैं खूब चीनहती हूँ! मां का एकाङ्गी निर्णय कौन मानेगा!" कमला,-(हँसकर)"क्यों री,सरला! मैंने पक्षपात किया है ?!"
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