पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१४३

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परिच्छेद 1 पराजिना। (१४१) -

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मल्लिका,-" कहोगे क्या? अपने सुख के संगी हौ, दूसरा चाहै मरै।" नरेन्द्र,-'प्यारी ! बात क्या है ? कहो भी ?" मल्लिका,-"विनोद को संग नहीं लाए ?" यह सुन कर नरेन्द्र ने मल्लिका का अभिप्राय समझा । उन्होंने जाना कि सुशीला को लक्ष्य करके यह बात कही गई, पर पिना हास्यतरङ्ग के रङ्ग फीका देख कर उन्होंने बात आगे बढ़ाई,- "क्यो ? विनोद की क्यों खीज है ?" मल्लिका,-"कहते क्यो हो ? लज्जा नहीं आती? अपना सा भातुर हदय सबका समझो!" नरेन्द्र,-"मा ! विनोद बिना मन नहीं लगता?" मल्लिका के सर्वाङ्ग में सर्पदंशन की भांति यह वाक्पविष पिंध गया, वह थर्रा कर उठ खड़ी हुई और कापते कांपते रोषकषायित लोचनों से नरेन्द्र की ओर देख दांतों से गोष्ट काट कर बोली,- छिः ! तुमसे बोलना, भख मारमा नहीं तो क्या है ? मरेन्द्र ने मल्लिका का हाथ थामकर बैठाया और सादर कहा,- "प्यारी! क्या हुआ? इतनी रुट क्यों होगई ?" मल्लिका,-"चलो! हटो!! छोड़दो !!! अब मैं तुमसे न बोलंगी। मुझे ऐसा 'रुक्मिणीपरिहास' अच्छा नहीं लगता।" नरेन्द्र,-"अस्तु,जो हुगा सो हुमा,अब आगे ऐसी त्रुटिन होगी।" मल्लिका,-"यह भी देखना है।" नरेन्द्र.-" देख लेना। हां! यह तो कहो कि विनोद से क्या' “ मल्लिका,-"क्या कहोगे?सुशीला की दशा का विचार करो?" नरेन्द्र,-"यही सोधी बात पहले क्यों न कही ?" मल्लिका,-"मुझे स्मरण नही था कि इस समय तुम्हें रग सूझा है; नहीं तो सीधी को उलटी क्यों समझते ?" नरेन्द्र,-"समझाने में तुम्हीं से भूल हुई। मल्लिका,-"देवता को किस भांति समझाती !" नरेन्द्र,-प्यारी ! तुम्हारी रुखावट में बड़ी मधुरता है।" मल्लिका,-"अच्छा योंही सही, परन्तु विनोद के लिये का विचार किया ?