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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१४२

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( १४० ) मलिकादेवी। [ सत्ताईसवां मल्लिका,-"केवल यही कि-'इन वस्तुओं को यत्न से रखना,'-. नरेन्द्र ने कमलादेवी का हार्दिक भाव और मल्लिका का कोमल स्वभाव समझ कर साहसपूर्वक कहा.-"प्रिये ! संदेह न करो। तुम्हारी माता व्यवहार कुशला हैं, इससे वे प्रसन्न ही होंगी।" मल्लिका,-"तुम मुझे महा लजित करवा रहे हो ! मां मन में क्या कहेंगी?" नरेन्द्र,-"कुछ नहीं। अस्तु, पह अँगूठी कहाँ है?" यह सुन मल्लिका ने अंगूठी दिखाई। ऐसे अवसर में नरेन्द्र के हृदय में कैसा आनद हुआ होगा,पाठक पाठिकागण इसका अनुभव करलें। नरेन्द्र ने पुनः पूछा,-"और यह मोतियों का हार ? " लज्जा से मल्लिका ने सिर नीचा कर लिया । उसके कण्ठ में हार देखकर नरेन्द्र के गलौकिक आनन्द की सीमा नरही।मल्लिका को नीरव देख कर उन्होंने कहा,-"प्यारी! अब वह दिन बहुत सन्निकट है कि परस्पर इतना भी अगर न रहेगा। हमारे तुम्हारे मध्य में व्यवधान-म्वरूप दुष्ट तुगरल इसी सप्ताह के भीतरही इस संसार से प्रस्थान कगा, तब तुम महारानी होगी।" मल्लिका लज्जा से चुप रही, यह देख कर नरेन्द्र ने पुनः कहा,- "क्यों मल्लिका! तुम हमें कैसा चाहती हो?" मल्लिका,-"अपने मनोमुकुर में अपना मुख्न देखो!" नरेन्द्र,-"देख सकते हैं, पर दिखा नहीं सकते, इसीसे तुमसे पूछते हैं।" मल्लिका,-"तो मैं कैसे दिखाऊं?" नरेन्द,-'नहीं; तुम दिखा सकती हौ !" मल्लिका,-"वाह ! कैसे ?" नरेन्द्र ने हँसफर एक स्निग्ध फटाक्ष किया, उससे मल्लिका कुछ लज्जित हुई; कितु निजमाव गोपन करके भ्र युगल उत्तोलन करके बोली,-"चलो ! तुम हमसे परिहास करते हो ?" यो कह कर मल्लिका हंस पड़ी, और बात उड़ाने के छल से बोली,-"तुम बड़े निष्ठुर हो।" नरेन्द्र,-"यह भैरवी में गौरी छेड़ी गई ! मल्लिका,-"तुम्हें तो रागिनी ही सूझेगी !" नरेन्द्र,-"तो और क्या कहैं ?"