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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१५

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परिच्छे]
(१३)
वर्गसरोजनी।

एक,--"तुम्हारा,बीबी! चित्त बड़ा सरल है, तुम अभीतक संसार की घटनाओं को अच्छी तरह से नहीं जानती। तुम एकाएक बिना विचारे सभी विषय पर अपना निष्कपट स्वभाव प्रकट कर देती हो । ससार में अनेक प्रकार के जीव हैं, इस लिये गिना अच्छी तरह परीक्षा लिये, किसी पर विश्वास कर लेना सर्वनाश का मूल है। उसमें भी जैसी हम लोगों की अवस्था है, उसके अनुसार बडी सावधानी से हमलोगों को चलना चाहिए। हां! जो तुम्हारी ऐसी ही लार टपकती हो तो वहीं जाकर उनसे भेंट कर आओ?"

दूसरी,-"चल! दूर हा! आज तुझे क्या होगया है, जो मुझे इस प्रकार छेड़ती है ? किसी सज्जन के सग दुर्भाव प्रकट करना क्या मनुष्यता है ? जा! जो तेरी इच्छा हो,सो कर !!!"

एक,--"ऐं! आज क्या है, प्यारी ! जो तुम मुझसे इस रुखाई से बातें करती हो ! देखो नीति में कहा है,-

"बिना जानि दीजै न कहूं, पर नर को घर बास।"

दूसरी,--"हट! योही बक रही है,-'

"छिपै न ढांके बसन के, सुरस फूल की पास ॥

फिर दोनों स्वर ऐसे धीमे होगए कि युवा ने कुछ भी नहीं समझा,पर जो कुछ उसने समझा,उसीसे उसके आश्चर्य की सीमा न रही । युवा उत्कठा से उधर ही कान लगाए रहा, किन्तु फिर कुछ न सुनाई दिया। तब उसने आपही आप कहा,-

ऐं ! यह कैसी लोला है ! ये दोनों सुन्दरी कौन हैं ? अहा ! इनके स्वर कैसे मीठे हैं ! पर दूसरी का स्वर मधुर और सरलता. पूर्ण भावों से भरा है! पहिली सुन्दरी का स्वर भी यद्यपि मीठा था, पर वह युक्तिसङ्गन था। क्या इस स्थान की यही अधिष्ठात्री हैं ? परन्तु ऐसा तो प्रतीत नही होता! अस्तु जो हो, यद्यपि इनका रहस्य अभी बिदित नहीं हुआ,पर यह चित्त में निश्चय प्रतीत होता है कि ये किसी दुर्दान्त दुष्ट से अवश्य सताई गई हों !!! क्योंकि ये मनुष्यजाति को बड़ी घणा की दृष्टि से देखती हैं। और निर्जन स्थान में अलरजनों को पर पुरुष से शकित होना भी उचित ही है। तो क्या इनमे एक परिचारिका है ! पर उसमें तो ऐसे लक्षण प्रतीत नहीं होते ! और दूसरी क्या उसकी स्वामिनी है ! तब सखीभाव क्यों व्यजित होता है ! हा! इस समय हमारे चित्त को कैसी दुराशा ने