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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१६

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(१४)
[दूसरा
वङ्गसरोजनी।

आ घेरा है !!!

युवा ने विशेष तर्क वितर्क करने का अवसर नहीं पाया, क्योंकि हांथ में एक तालवृन्त लिये वही सुन्दरी सन्मुख आ उपस्थित हुई।

युवा कुछ कहना चाहता था कि उसने कहा,-" यह स्थान आपके याग्य नहीं है, भीतर चलकर विश्राम करिए ।

युवक ने हसकर कहा,-" यही उत्तम है। क्या हम स्थान का अधिकार करने आए हैं, या इमे यहा सदा रहना है, जो उत्तम मध्यम का विचार करें ? थोडे विश्राम के लिये विशेष माडम्बर क्यों ?.

सुन्दरी,-"क्यों!

युवक,-"सुनो! तुमनं महा अन्याय का कार्य किया । ।

सुन्दरी,-'कैसा ! मैंने क्या किया ?",

युवक,-"फिर कहती हो, "क्या किया?" "अज्ञातकुलशीलस्य चासो देयो न काईचित् । " सो तुमने हमें स्थान देकर नीति पर कालिमा फेर दी और हम भी एकान्तस्थल में स्त्रियोंके-विशेषकर अपरिचित रमणियों के सङ्ग रहना धर्मविरुद्ध जानकर आप यहासे प्रस्थान करते हैं।

यों कहते कहते युवा उठ खड़ा हुमा । सुन्दरी ने समझा कि 'कदाचित ये हमलोगों की बातें सुनकर उदास होकर यहासे चले जाते हो !' इस बात का पश्चात्ताप करके उसने लज्मा से सिर झुका लियो और — अब क्या कर्तव्य है ?' यह वह सोचने लगी।

इसी अवसर में बगल की कोठरी से एक मधुर मंद हास्यध्वनि युवा के कानों में पहुंची, जिसे सुन उसने दृष्टि फेर कर देखा कि बगल पाली कोठरी की किवाड़ो की ओट में एक षाड़शी बालिकाखड़ी, एक टक उसकी ओर सतृष्ण नयनों से देख रही है और मुख को अचल से ढक कर मुस्कुरा रही है। युवा की दृष्टि से उसकी दृष्टि मिलते ही सह लज्जा से सिमट कर आड़ मे हट गई। युवा ने अभीतक पूर्ण रूप से उस रूपमाधुरी का मनोहर चित्र अपने हदयपट पर अकितनही किया था, तथापि क्षणसैदामिनी से जो अतुल सुख का अनुभव होता है, इससे यह सुरु कही बढ़ कर था। युवास्तभित होकर उसी मोर देखने लगा, पर वह चपला को-सी छटा फिर आंखो के आगे चमक कर छिप गई!युषा के नयनाचकोरों के सन्मुख कमी ऐसी रूपछटा आई