पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१६)
[दूसरा
मल्लिकादेवी

मुख की ओर देखने लगा।

सुन्दरी ने उसके हृदय के भाव को समझकर उसका धरण पकड़ कर कहा,-"महाराज! दासी के अपराध को क्षमा करिए। भाप कुछ शका न करें, हमलोग आपकी बैरिन नही हैं।"

युवक,-" तुम कौन हो ? कहो, हमसे भी कभी अपनी बुराई की आशा न करना ।"

सुन्दरी,-"महाराज! यह भापके दर्शनमात्र ही से मुझे निश्चय होगया है, परन्तु--

युवक-" परन्तु क्या ?"

सुन्दरी,-" एक अनुरोध है।"

युवक,-" कहो!"

सुन्दरी.-'आपं फिर आगामी पूर्णिमा को यहां पधारेंगे ?"

युवक,-"यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो हम आयेंगे।"

सुन्दरी,-"तब मैं अपना पूरा परिचय आपको दूंगी।"

युवक,-"अच्छा, बताओ तो हम कौन हैं !.

सुन्दरी,-"महाराज!"

इतना कहकर युवती ने कुछ यवा के कानों में कहा, जिस से यवा ने चकित होकर उसकी ओर देखा।

फिर सुन्दरी ने कहा, "अभी हमारे और आपके अपराध का निर्णय तीसरे व्यक्ति के ऊपर रहा ।"

युवा हंसने लगा, और सुन्दरी ने क्षणभर के अनन्तर फिर कहा,--'अच्छा, अब चल कर स्नानाह्निक करिए, तीसरा पहर होगया। फिर विश्राम करिएगा। और चोट पर पट्टी बाधिए।"

युवा ने युवती के वचनों का उत्तर न देकर हुष्टि फेरी तो उसी द्वार पर पुनः आशालता की सजोष छवि दिखाई दी, पर वह क्षण भर में पुनः अंतहिंत होगई। युवक सहस अनिच्छा रहने पर भी मंत्रमुग्ध सर्प की भांति युवती के पीछे पीछे दूसरे घर में गया। स्नानासिक, पुनः भोजन, इतने में संध्या होगई । युवा ने बहुन चाहा कि प्रस्थान करें, पर उस सुन्दरी के अनुरोध से उसे वहीं रात्रि व्यतीत करनी पड़ी। किन्तु हा! उसे अपने निराश्रय अश्व की सुधि न रही। घाव पर पट्टी बांधी गई थी।"