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(१८)
[तीसरा
मल्लिकादेवी

ग्रीष्म काल, निशीथ का समय, चद्रमा मध्य गगन में अपनी अखंड कौमुदी से पृथ्वी को प्रकाशित कर रहे थे। संसार के सभी जीव उम सुख का अनुभव करके खच्छद विश्राम करते थे। वसंतानिल शीतल, मंद और सुगंध लिये, बहती, और जीवों का सुख संपादन करती थी । मदिर के भीतर एक लबी चौडी छत थी, उस पर सुथरी शैय्या पर हमारे पूर्वपरिचित युवक सुखपूर्वक निद्रादेवी की माराधना करते थे। संसार निस्तब्ध और शांति के राज्य का सुख अनुभव करता था। शैय्या के पास एक षोडशी बाला खड़ी खड़ी युवा के मुख की शोभा देखती, कभी हँसती, कभी रोती, कभी दीर्घनिश्वास त्याग करती और कभी कुछ गुनगुनाती जाती थी।

इसी थोड़े से समय में जो बालिका के हदय का इतना परिवर्तन हुमा, बीरपुरुष के दर्शनमात्र ही से जो उसने आत्मसमर्पण किया, यह क्या विचार में आसकता है ? पहले बालिका कुहूरव,भ्रमरझंकार और चद्रिका का जैसा सुख अनुभव करती थी, इस समय ठीक उसके विपरीत था। कवियों के मन से कुहूरच,भ्रमरझंकार, चांदनी और मलयवायु विरहिणी के शत्रु हैं । यद्यपि संयोगी के पक्ष में ये आनददायो हैं, पर विरही के लिये नहीं। बिरहीजनों के हृदय में जो अभाव है, उसके पूर्ण हुए बिना ये सब उसे शत्रुवत् प्रतीत होते हैं।

तो क्या, सचमुच उस बाला ने अनजाने पथिक को अपना सर्वस्व समर्पण किया ? क्यों ? इसका पा परिणाम होगा? अस्तु जो हो, विधि की खडनीय गति है, इसमें पालिक गौर युवक का दोष या है ?

एक चौकीपर यालिका बैठ कर युवा के मुखपर पंखा झलने लगी। उसकी आंखों से बूंद बंद आंसू टपकने लगे। अहा ! सरल. हृदया बालिका का जैमा कोमलतापूर्ण हृदय था, वैसीही सरलतामय उसकी आकृति भी थी। स्त्रीजाति माया की आधार होती हैं। सरला बालिकाजनों के न रहने से यह शोभापूर्ण जगत अन तक मरुभूमि होगया होता! यदि इस विषय में पाठक-पाठिकागण भुक्तभोगी हों तो अवला के हृदय का भाव समझले । करुणामयी सरला बालिका के कोमल हस्त की मृदुमंदानिल से युवा कासर्वाङ्ग कंरक्ति हुगा । रात्रि के तीन बज गए होंगे, उस समय युवा की आंख खुली । उसने आंख खोलकर देखा कि,-'शैया के