सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद]
वङ्गसरोजनी।(१९

समीप कोमल कर में व्यजन लिये पूर्वपरिचित बालिका चौकीपर बैठी है। वह बार बार अञ्चल से नयन पोंछती और ठंढी सांस लेती जाती है।' देखते ही युवा के मन में भावान्तर हुआ। उसने मन में प्रतिज्ञा की कि,-'इस रत्न के अतिरिक्त और किसीको कभी अपने हदय में धोरण नहीं करेंगे।'

ऐं! यह क्यों ? यह प्रणय की आकर्षणशक्ति !!! जो प्रणय एकाङ्गी होता है, वह वस्तुतः प्रणय नहीं है। बरन प्रणयाभासमात्र है। युषा की आखों से आंख मिलते ही लजावगतमुखी अबला संकुचित होगई । वह चाहती थी कि उठकर वहासे चलदे, किन्तु गति ने उस समय उसका अनुरोध नहीं माना । युवा शैय्या पर उठ कर बैठ गया। दोनो प्रणयी का हृदय धड़कने लगा। सूना स्थान होने से नवप्रणयी को महाविभीषिका सताती है। इस संसार में किसीकी भी ऐसी सामर्थ्य नहीं है, कि नवसमागम में नवप्रणय से अंकुरित हदय न कांपे ।

युवा ने हृदय के वेग को रोक कर मृदुस्वर से कहा, "सुंदरी! तुमने शयन नहीं किया ? तुम कबसे यहा बैठी हो ? "

परंतु बालिका चुप रही। उसका उत्तर नपाकर युवा ने फिर कहा,-"क्या हमारा ऐसा मंदभाग्य है कि तुम्हारी दोबातें सुनने का भी अधिकारी नही है ? ऐं! तुम क्या हमें पंखा झलती थीं? हाय-

युवा चुप हो गया। उसका हृदय भीतरसे उमड़ आया। उसके हृदय के भाव को समझकर अतिक्षीण स्वर से बालिका ने कहा,- "महाराज! आप अतिथि हैं। आपकी सेवा करना हमलोगों का धर्म है।"

इससे अधिक वह कुछ न कह सकी, क्योंकि उसका कण्ठ लजा से रुक गया।

युवा,-"तुम्हारी दूसरी संगिनी कहां है ? "

बाला,-"दूसरे घर में । "

युवा,-"तुम अपना परिचय न दोगी ? क्या हमसे भी भय है ? हम कैसे चीरकर अपना हदय तुम्हें दिखावै ?"

बाला,-"महाराज! मैं अवश्य परिचय देती, पर विश्वासघात करना क्या पाप नही है?"