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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/३

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श्रीहरिः


मल्लिकादेवी
वा
वङ्गसरोजनी
उपन्यास




पहिला परिच्छेद.

प्रथम दर्शन।
"यश्चिन्तित तदिह दूग्तर प्रयाति,
यश्चेतसा न गणित तदिहाभ्युपैति॥"

(रामायण)

अहाहा! गरमी की ऋतु सचमुच बड़ी भयंकर होती है, तिस पर वैशाख का महीना, बस भगवानही बचावे! ऐसी ऋतु के ध्यान-मात्र से रोमकूप पसीने से भर उठते हैं; फिर जिनके सिर यह बला पड़ती है, उनका तो कुछ कहना ही नही, कि छट्ठी का दूध याद करा देती है। दो पहर का समय, आकाश के बीचोबीच खड़े होकर सूर्य भगवान अपने अग्निबाण के समान किरणों से आग बरसा कर मानों संसारी जीवों को भस्म करने का प्रयत्न कर रहे हैं, और इस तरह क्रोध से लाल लाल आंखें निकाल कर बिचारी पृथ्वी की ओर घूर रहे हैं, कि मानों अभी छिन भर में इसे धूल में मिला देंगे।

ठीक उसी समय, डडाठोक दुपहरी में एक युवापुरुष फौजी