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मल्लिकादेवी

अफसरों की सी चमकीली और दामी पोशाक पहिरे, सिपाहियाना ठाठ से बड़ी तेजी के साथ सूनसान जगल में अपना मुश्की घोडा फेंकता हुआ पूरब की ओर चला जाता था। उसके दाहिने हाथ में बरछा, बायें में लगाम, पीठ पर ढाल, और परतले में एक ओर पिस्तौल और दूसरी ओर छोटी बड़ी दो तलवार लटक रही थीं। घोड़ा क्या था, ज. था। इस तरह वह कानों को खड़ा कर गर्दन उठाए हुए उड़ा जाता था, मानो हवा से बातें करता हो ! देखते देखते सधन बन को लांघ कर वह युवा परपट मैदान में भाया, और धूप की गरमी से विकल होकर घोड़े कीचाल को उसने और बढ़ाया। यद्यपि घोड़ा भी कई कोसतक तेजी के साथ दौड़ते दौड़ते थक कर पसीने पसीने होगया था और मारे घाम के घबरा उठा था, तौभी अपने स्वामी के चाबुक की चोट से तलमलाता हुआ सरपट मारे चलाही जाता था।

ऐसे सूनसान मैदान में गरमी की ऋतु में, ठीक दोपहर के समय घोड़ा दौड़ाना कुछ हसी खेल नहीं है, जान जोखों का काम है। कोसों तक सायेदार पेड़ों का नाम निशान तक नहीं, और न कहीं नदी न कुवां; बस पूरा मौत का सामना था । कोसों तक मरुभूमि सूरज की किरनों से तपकर लाल लाल अंगारे, या तपाये हुए सोने, अथवा टेसू की क्यारी की भाति प्रतीत होती थी। कहीं कहीताड, बबूल, कैथ और रेंड के पेड़ो में अपने घोसले में दबके हुए पखेरू दाना नहीं चुंगने थे और न इधर उधर थोथी छाया में अचेत लुढ़के हुए चौपाये चारा चरते थे। न पछी आकाश में, न पशु पृथ्वी पर चरते फिरते दिखाई देते थे। जो जहां था, वह वहीं अपनी जान के लिये हैरान पडा तड़प रहा था, तो फिर ऐसे भयानक समय में कहीं किसी चलते फिरते आदमी का दर्शन न हो तो इसमें अचरज की कौन सी बात है ! यदि ऐसे आफत के समय में कोई मैदान में था तो वही हमारा नौजवान वीर बांका और उसका जानदार जानवर घोड़ा, और तीसरी पटपर मैदान में लहराती हुई लू !!!

हम ऊपर लिख आए हैं, कि वह युवा घोडा रपेटे हुए पूरय की ओर चला जाता था, मारे घाम के उसके अंगअंग से पसीने की बूंदें टपक रही थी, मुख लाल और रूबा हो रहा था। उसके मुख की फीकी प्रभा ऐसी दिखाई देती थी, मानों अभी सरोवर में से लाकर