पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/३८

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(३६)
[छठां
मल्लिकादेवी।

यवन,-"देख, बुतपरस्त काफ़िर! अपने किये का नतीजा तू अभी पाता है। "

"पहले तूतो अपना नतीजा भोग!"यों कहकर द्विगुणित उत्साहित और क्रोधान्ध होकर महाराज ने तल्वार चलाने की निपुणता से तीन यवनो को और भी मृत्य के हाथ सौंपा, शेष एक व्यक्ति अपनी जान लेकर भाग गया। महाराज अतिशय श्रांत और कातर होगप थे, उनके कई अंगों में हलकीसी चोट भी लगी थी, किन्तु उस पर दृष्टिपात न करके वे बाहर आकर उसी ओर चले, जिधर का पता उस अपरिचित ने बतलाया था । सो शीघ्रता से महाराज ने उस आमवारी में पहुंच कर क्या देखा कि वही अपरिचित व्यक्ति उन्हींका घोड़ा और अस्त्र-शस्त्र लिये खडा है !

उसे देख और चकित होकर महाराज ने कहा,-" भई ! तुम कौन महात्मा हो ? आज तुमने हमें शस्त्र देकर हमारे प्राण बचाए, इसका हम तुम्हे शुद्धान्तःकरण से असंख्य धन्यवाद देते हैं। पर यह तो कहो कि तुमने हमारे घोड़े और अस्त्र-शस्त्र को कहासे पाया?"

उनकी बाते सुनकर उस अपरिचित व्यक्ति ने सिर झुकाकर कहा, "श्रीमान् ! मनुष्य की रक्षा जगदीश्वर ही करता है, मैं क्या बस्तु हूं, जो आप मुझे यों लजित करते हैं ! उचित है कि आप ईश्वर का धन्यवाद करें। इसके अलावे आपके अश्व या शस्त्र को मैंने कैसे पाया, इसका रहस्य मैं फिर किसी समय श्रीमान पर प्रगट करूंगा।"

यो कहकर वह जाने लगा तो उसे रोककर महाराज ने अपने गले से एक मोती की माला उतार कर उस अजनबी को दी और कहा,- "तुम्हारे उपकार के बदले में यह कुछ भी नहीं है, तथापि हमें अपना मित्र समझ कर इसे ग्रहण करो। बदि समय आया तो हम तुम्हारे साथ बड़ा भारी सलूक करेंगे।"

इतना सुन और माला ले, तथा सिर नवाकर वह अपरिचित उस आमबारीमें अन्तर्धान होगया और महाराज उस बारी से बाहर हो, पूर्व की ओर चले।मध्याह्न हो जाने से उनका शरीर अतिशय क्लांत होगया था। पाठक! ये वेही महाराज हैं, जिन्होंने यहासे चलकर मंदिर में माश्रय ले, अपने हृदय में मल्लिका को प्रतिष्ठित किया था। यवनों का संहार करके घे मन्दिरही में जाकर सरला के अतिथि हुए थे, और यह अजनबी भी पाठकों से अपरिचित नहीं है।