पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/३९

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परिच्छेद]
(३७)
वङ्गसरोजिनी।
सातवां परिच्छेद.

आत्मरक्षा।
"भगवन्न सहे दुःखं विस्मयाकुलितो जनः"

(स्कंदपुराण)

उधर डांकुओं का संहार करके महाराज तो मल्लिकादेवी की दिव्यच्छटासे छकित हो आनद-उपभोग में निमग्न थे। इधर प्रातःकाल वन्यगिरिगुहा मे मन्त्री महाशय जागृत हो, समीप महाराज को न देखकर यह समझे कि,—'प्रातःकर्म समापन के लिये कदाचित वे जलाशय के समीप गए होंगे! किन्तु प्रातःक्रिया में इतना आज विलब क्यों हुआ? तीन घंटे बाट देखते देखते बीत गए, तौ भी महाराज का अदर्शन!!! क्या फिर तो वे मृगशावक के मोहजाल में नहीं पड़े?'

मंत्री, महाराज को इतने विलम्ब पर भी आते न देखकर अतिशय व्यथित हुए। अनेक प्रकार की शंका उनके मन में उदय होतीं, परदूसरी के आतेही पहिली तिरोहित होजाती थी। उनके चित्त में यही उथल पुथल होने लगा। मत्री ने अन्त में चारो ओर घूम घूम कर महाराज का बहुत अन्वेषण किया, पर कुछभी फल नही मिला। ऊंचे-ऊंचे वृक्षों पर चढ़कर चारो ओर दृष्टि दौड़ाई, किन्तु कहीं भी महाराज का चिह्न नहीं दीख पड़ा। तब वे हताश होकर वृक्षसे उतर आए। उन्होंने देखा कि,—'कंदरा के समीप ही दो घोडों में से महाराज का घोड़ा नहीं है।'

अश्व को न देख कर मंत्री के मन में महासंदेह हुआ। उनका मुख शुष्क और कालिमावर्ण होगया। हृदय भग्न और अंग प्रत्यंग शिथिल होगया। दृष्टि अश्रुपूर्ण और बुद्धि अस्तमित होने लगी। भय के संग शोक का चिह्न मुखपर चमकने लगा। वे धीरे धीरे निकटवर्ती सरोवर के तीर पर जाकर इधर उधर चित्त बहलाने और महाराज का अन्वेषण करने लगे, पर न तो महाराज का ही कहीं दर्शन हुआ, और न चंचल चित्त में शान्ति का ही उदय हुआ।

वे अतिशय दुःखित होकर गद्गद स्वर से स्वयं कहने लगे,—हा! सखे! तुम कहां हो? बिना मित्र को संग लिये कहां सिधारे?