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परिच्छे ]
( ३ )
वङ्गसरोजनी

खिले हुए कमल को धूप मे डाल दिया हो! ऐसी गरमी, ऐसा पसीना,ऐसी धूप और ऐसी दशा, परन्तु फिर भी उसी प्रकार हृढ़ता के साथ अपनी सीधपर चले जाना हमारे वीरं युवा का ही काम था।

देखते देखते पांच सात कोस वह और निकल आया। गरमी, प्यास और परिश्रम के मारे घोड़ा और सवार, दोनों व्याकुल हो गए थे, पर न कही जलाशय था, न टिकने का स्थान ! तय किया क्या जाता, फिर वही घोड़ दौड !!!

बिचारा घोड़ा भी पसीने में डूबा हुमा चमोटी के डर से कान पोंछ उठाकर तेजी के साथ पूरब की भार चला जाता था, टाप से बराबर चिनगी उड़ती और उस सन्नाटे में अजब समा दिखाती थी । सवार के तालू चटकते और घोड़े के मुह से झाग बही जाती थी । जरो भी घाड़े की चाल रुकी कि फिर वही चाबुक, और वही दौडादौड़!!!

यद्यपि युवा ऐसी शीघ्रता से चला जाता था, किन्तु जलपान और छिनभर विश्राम के लिये चारों ओर आंख पसार कर किसी उत्तम स्थान की खोज भी लगाता जाता था, क्योंकि अब पिना सुस्ताने के प्राण नहीं बच सकते थे। इतनेही में उसकी दृष्टि ज्योंही पूरब और दक्खिन के कोने ( अग्निकोन ) में गई त्योहीं दिखाई दिया कि आधफोम की दूरी पर कोई ऊचा ढहा हुमा टीला पड़ा है। उसे देख कर हमारे युवा को कुछ आशा हुई और प्रसन्नता के साथ ही उसके शरीर में दूना बल आगया। पलभर में उस टीले के पास पहुंच कर उसने देखा कि किसी पुरानी गढ़ी या आलीशान देवमदिर का टूटा फूटा खंडहर अपने दिनों के फेर की प्रत्यक्ष दिखला रहा है कि संसार में जो कुछ दिखाई देता है, इसका एक न एक दिन अवश्य नाश होगा।

युवा घोड़े से उतर पड़ा और उसे चराई के लिये छोड़ दिया। घोड़ा भी अपने मालिक से छुट्टी पाकर पासही एक कीचड़ भरे गड़हे पर ऐसे बेग से झपटा कि जैसे बाज बहरी पर, और पिंजरे से निकलकर शेर बकरी पर गिरता है। वह गदला पानी पीकर कुछ ठंढा हुआ और इधर उधर सूखी सूखी घास चरते चरते हिन हिनाता हुआ छाया ढंढ़ने लगा।

युवा ने चारोओर पानी खोज्ञा, किन्तु उस कीचड़नाले गड़हे के