पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/५७

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परिच्छेद]
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वङ्गसरोजनी।

ग्यारहवां परिच्छेद । प्राशा ! "माशा सौख्यफरी पुनर्भयकरी भाशा पर दैवतम् ।" (भारततत्व)

      • सौ वर्ष से कुछ अधिक हुआ होगा, जिस समय भागलपुर

छ: से कई कोस की दूरीपर एक ग्राम गङ्गा-किनारे बसता Ment था। ग्राम छोटा होनेपर भी रमणीय और मनोहर RK था। दो शस्यपूर्णक्षेत्र, एक पार्श्व में भागीरथी, और दूसरे किनारे सामान्य बन था। मध्य में ग्राम अपनी शोभा विस्तार करके स्थित था । इस ग्राम में अधिकांश ब्राह्मण, क्षत्रिय और कायस्थों की स्थिति थी । इतर कई बीच जाति, गोप तथा मत्स्य- जीवी भी रहते थे। यद्यपि मुसल्मानों के उत्पीडन से देश में महा हाहाकार होरहा था,अनेक ग्राम मरुभूमि में परिणत हुए थे, किन्तु इस ग्राम की दशा उन्नत नहीं तो अवनत भी नहीं थी, न दुर्दान्त पठानों की क रष्टि ही इधर विशेष पडती थी। क्यों ? इसे जगदीश्वर की कृपा भिन्न और क्या कहा जा सकता है ? इस'ग्राम में बीस पच्चीस गृह पक्के ईटों से बने दो तीन मरातिय के थे और अन्यान्य सभी घर कच्चे, पर परिष्कृत थे। कच्चे घरों में भी कई दो मरातिष के थे। ___ प्रातःकाल गौर संध्या समय भागीरथी के तीर अधिकांश युवक-युवतियो, तथा स्नानार्थियों का जमघट होता था। स्त्रियां जो जल लेने के लिये आती थीं; वहांपर बैठकर परस्पर कथोप- कथन करती थी। एक दिन कई स्त्रियां परस्पर बातें कर रही थीं। उनमे से एक ने कहा,-"हां,री ! ललिता ! मल्लिका उसी बुढ़िया की लड़की है ? अहा! कैसी सुशील और सुन्दर लड़की है! ऐसी लक्ष्मी तो राजा की रानी होनी चाहिए, सो दरिदिन!!!" ललिता,-"ठीक है श्यामा ! हमलोगों को मल्लिका बहुत चाहती है । जाने पर जलदी आने नहीं देती। कई दिनों से सुशीला जो आई है, उसे मल्लिका अपनी बहिन बताती है। भई ! बड़ी बात हुई जो लुटेरों के हाथ से यह छूटी।"