पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/५८

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[ग्यारहवां
मल्लिकादेवी।

श्योमा,-"हा री, चपला ! कदाचित् उसीके विरह में मल्लिका व्याकुल होरही है, जिसने उसे छुड़ाया है। खैर, जाने दो इन बातों को; संध्या हुई, घर चलो।"

अनतर सब गृह की और अपना अपना घड़ा उठाकर चली गई।

चाहे किसी कारण से हो, ग्रामवासियों में परस्पर बडा ऐक्य और सोहार्द था । कदाचित् इसी कारण से कि,-'कहीं दम्युगण आक्रमण न करें, सभी विशेष सतर्भ और सशस्त्र रहते थे, और एतदर्थ एकाएक दस्युगण भी ग्राम में प्रवेश करने का साहस नहीं करते थे। इसीसे ग्राम की रक्षा थी और ग्रामीणो को सुख था।

मध्याह्न के समय एक परिष्कृत प्रकोष्ठ में चत्वारिंशत्-वर्षीया एक प्रौढ़ा कुशासन पर पनासन से बैठी थी। उसका अङ्ग गौर, शरीर किंचित् स्थूल तथा संदर था। केश बिल्कुल काले और मुख अलौकिक तेजःपुंज से देदीप्यमान था। चारों और पूजा की सामग्री और सन्मुख शिवलिंग रक्खा था। धूप जलती और दीप बलता था । दक्षिण ओर काष्टासन पर विष्णुसहस्त्रनाम आदि की कई पुस्तकें धरी थी। प्रौढ़ा से कुछ दूरी पर सन्मुख एक परम रूपवती युवती भूमि में जानु पतित कर हाथ बाधे, तथा सिर नवाये,नमता से बैठी थी। प्रौढ़ा सिरझुकाए समुज्वल नेत्रों से अश्रु. विमोचन करती और उढो सांसें भरती थी। युवती की दशा भी इससे न्यून नहीं थी।दोनो मौन और विचार में मग्न थीं। पार्श्वस्थ गृह में दो अपर बालिकाएं बैठी हुई धीरे धीरे परस्पर बातें करती थीं। दोनो समवयस्का थीं, पर उनमें एक अतिशय प्रतिभाशालिनी और देखने में कुछ बडी थी । वह दूसरी बाला से अपनी दष्टि बचाकर उत्सुक चित्त से बाहरवाली युवती की ओर देखती, और उसीऔर कर्णात करके कभी कभीदीर्घ निश्वासलेती थी। उसकी आंखों में भी कई बार अश्रुदेव ने दशन दिया था, पर उसने दूसरी बालिका की दृष्टि बचाकर अञ्चल द्वारा उनका मार्जन किया था।

क्षण काल के अनतर युवती ने सविनय निवेदन किया,-"मां! क्या दासी की प्रार्थना स्वोकृत न होगी ? मेरे ऐसे मंद भाग्य!"

प्रौढ़ा,-"सरला! तू मुझेमल्लिकासे भी अधिक प्यारी है,परन्तु-"

युवती का नाम सरला था उसने रोककर कहा.-"जिसने ऐसा उपकार किया, वह किश्वत भी दया का पात्र नहीं हो सकता?