पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/६१

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परिच्छेद।
(५६)
वङ्गसरोजनी

बारहवां परिच्छेद भनय सखी सङ्ग। "सखीजनानामिह चारु वार्ता।" (कन्दर्पविजय) POSरला का हृदय आनन्द में निमग्न होकर नत्य करने लगा। स उसके हृदय में प्राणापमा मल्लिका का प्रसन्न और करुणामय मुख मङ्कित हुमा । वह उस सुख से एक PRERA मात्र धैर्यच्युत होकर विशेष काल तक प्रौढ़ा के समीप नहीं बैठी और अभिलाषा पूर्ण होतेही महामुदित मनसे मल्लिका के प्रकोष्ठ की गोर द्रुतगति से धावित हुई । उसने देखा कि मल्लिका परमानंदित होकर गृह के मध्य इधर उधर पद चालनकर रही थी। सरला के प्रविष्ट होतेही वह लज्जामय भाव से संकुचित होकर खड़ी होगई और सरला ने चार चक्षु होतेही एक स्निग्ध कटाक्ष पात करके कहा,-"मल्लिका!" मल्लिका ने हंसकर परिहास से कहा,-"मालती!" - सरला,-"जुही, चमेली, गुलाब, केतकी आदि फूलों की माला बनाकर गले में डाल लो, जिसमें जो की कोई बात बाकी न रहै ! ऐं ! आज मैं मालती बन गई ? हूं!!!" मल्लिका,-"तू सरला होने पर भी बड़ी कुटिला है।" सरला,-"भला मल्लिका से बढ़कर संसार में दूसरा फोन कोमल है ?" मल्लिका,-"आज तुझे कैसा रङ्ग चढ़ा है ? " सरला,-"हलका, गुलाबी ! अच्छा अब मैं जाती हूं ! " मल्लिका,-कहां! कहां!" ___ सरला,-"तुम्हारे गुणनिधि को बुलाने । आज कुछ पारितोषिक दोगी न?" ____यह सुन मल्लिका ने लजित होकर मंदस्मित करते करते सरला को झोंका देकर कहा.-"चल! दूर हो सामने से । " सरलो,-"वाह रे, नवाबी ? तूही हटजा,जो ऐसी छौंक माती