पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५८)
[ग्यारहवां
मल्लिकादेवी।

सरला,--" मा ! सा यदि तुम्हें कहना न पड़े, और वे आकर स्वयं ही इस कार्यसाधन की आज्ञा आपसे मागें, और अनुनय- बिनय करें तो इसमें क्या क्षति हैऔर ऐसा करने में किस प्रकार आपकी प्रतिज्ञा भंग होती है ?"

यह सुन प्रौढ़ा, क्षण काल तक नीरव होकर विचार करने लगी, और सरला आशा से उसकी ओर देखने लगो। और अपर धालिका जहा बैठी थी, वही बैठी बैठी आशा से बार बार सरला की ओर देखती और,-'सरला कहीं यह बात नजानले,'यह बिचार, मुख फेर कर अंचल द्वारा आश्रमार्जन करती थी। वह बालिका और कोई नहीं, मल्लिका ही था, मल्लिका की देखादेखी, झांका. ताकी, सरला भी अज्ञान बनकर देखती और मन ही मन उसके मनोरथ पूर्ण करने की अभिलाषा से अपनी सहायता के लिये करुणामय जगदीश्वर को पुकारती थी।

प्रौढा ने अचल से अश्रुमार्जन किया और दीर्घनिश्वास लेकर कहा,-"सरला! आन मैं तेरीवायचातुरी के आगे पगस्त हुई ! अस्तु, कन्या के सौभाग्य और तेरी बात रखने के लिये मैंने सब स्वोकार किया।"

यों कहकर प्रौढ़ा निम्नमुखी हुई और सरला के आनद की सीमा न रही। उसने मानो आकाश के चद्रमा को करतल से पकड लिया ! उसने मल्लिका की ओर देखा तो उसके मुख पर भी आशा के संग भानन्द के विशद चिन्ह चमकने लगे थे। ।

यह देखकर सरला काम रोम हर्षित होगया। उसने प्रणत होकर कहा,-"मां! आज्ञा हो तो मैं अपने काम के लिये जाऊ।"

इस पर अच्छा कहकर प्रौढ़ा पूजा में निमग्न हुई और सरला वहांसे उठकर मल्लिका की ओर गई।पाठको ने क्या इनलोगों को चीन्हा?

सुनिए, यह प्रौढ़ा ही मल्लिका की माता थी, जिसका विशेष वृत्तान्त हम आगे चलकर लिखेंगे।