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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/६३

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परिच्छेद ] बङ्गसरोजिनीं । (६१) अपना ऐसा कृत्रिमभाव प्रकाश किया था, पर मल्लिका को यह निश्चय हुआ कि,-'अब यह कदापि महाराज के समीप उन्हें बुलाने के लिये नहीं जायगी!' इस बात को सोचकर मल्लिका महा क्षमित होकर निज लज्जा को सहस्रों धिक्कार देने लगी; किन्त लज्जा का तिरस्कार करके भी उसे ( लज्जाको ) एकाएक त्याग नही सकी। उसने अपने मन का भाव भी सरला से छिपाना चाहा था, पर भस्म से आच्छादित अग्नि कहीं छिपती है ? सरला ने हंसते हँसते मल्लिका का हाथ थामकर कहा,-"सखी! अब मैं न जाऊगी, सदेह न करो, प्रसन्न होजाओ।" ये वाश्म सरलहदया मल्लिका के कोमल मन में बाण से लगे, उसने नीचा मुख करके अर्धस्फुट स्वर से कहा,-"क्यों, जाती क्यों नही ? कोन नाहीं करता है ?" सरला,-"तुम ।" मल्लिका,-"अच्छा, जाओ, अप नाहीं न करूगी।" सरला ने 'जाआ' यह सुनते ही मल्लिका को गले लगाकर कहा-"प्यारी, सुशीला से यह सब अभी मत कहना।" बात यह थी कि जिस समय सरला प्रौढ़ा के पास से उठकर मल्लिका के पास आई थी, उस समय कुछ समझ बूझ कर सुशीला नाम की दूसरी बालिका, जो मल्लिका के पास थी, वहाले आपही आप टल गई थी। मल्लिका,-"अच्छा। सरला,-"देखो, सचेत !!! जागती रहना। इस पर “जा जा," कहकर मल्लिका ने गट्टहास्य फिया, सरला भी स्थिर नहीं रह सकी। उसकी भी हास्यलहरी मल्लिका को हास्यलहरी में मिल गई। ____ मल्लिका ने उत्तम समय देख कर कहा,-" सरला सुशीला के । लिये विनोद को भी सग लाना।" मल्लिका सब बातें कहने नहीं पाई थी कि उसी घर में सुशीला ने पुनः प्रवेश करते करते हँसकर मल्लिका को लक्ष्य करके कहा- "और मल्लिका के लिये नरेन्द्र को ! क्यों ? अब ठीक हुआ न ?" सरला महा चतुरा थी, हास्यरस में भी वह पारङ्गत थी,-सो उसगे रस बढ़ाने के लिये सुशीला को देखकर कहा,-"और अपने