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[तेरहवां
मल्लिकादेवी।

क़िले में जितने व्यक्ति हो,सभों को एक साथही सर्वनाश होजाय।

“आह ! श्रीमान् इस भयङ्कर समाचार ने आप पर बड़ा ही भयानक असर डाला होगा! किन्तु नही, आप न घबराय और जो मैं कहता हूं, उसे करें। वह परामर्श यह है कि आप अपने दुर्ग की खाई के उस फाटक को शीघ्र खुलवा दें, जिस रास्ते से गङ्गा का जल आकर बात की बात में सुरङ्ग में भर जाता है। यदि ऐसा आप शीघ कर सकें तो आप की और इस किले की, तथा इसमें रहनेवालों की जाने बच सकती हैं, और हत्यारों के प्राण तुरन्त जा सकते हैं,जो नव्वाय तुगरल के हुक्म से सुरङ्ग में शीघतासे वारूद मिछा रहे हैं और जो गिनती में पचास से कम नहीं हैं।"

"श्रीमान् ! उन अभागों की कब्र उसी सुरङ्ग में,जल में डूबकर होजायगी और आप सकुशल बच जायगे। कारण यह कि सुरक्षा से निकलने की राह को मैं अभी किसी ढब से बंद किए देता हूं। "यद्यपि इतने मनुष्यों के प्राण जाने का मुझे खेद है, पर क्या करूं । अब यह किसी प्रकार संभव नहीं है कि आपका किला और सुरङ्ग के भीतरवाले नव्वाब के आदमी,-ये दोनोंही बच जाय ।

"कारण इसका यह है कि यदि वे निकलने की राह पावेंगे तो चट सुरङ्ग के बाहर निकलते ही बारूद में आग लगा देंगे,और यदि वे अभागे बाहर न निकल सकेंगे तो वे कदापि आग नहीं लगा सकते; क्योंकि इस समय, सुरङ्ग के भीतर बारूद बिछाने के समय भय के कारण अग्नि उत्पन्न करनेवाला कोई पदार्थ उन लोगों ने अपने साथ नहीं रक्खा है।

“बस, श्रीमान्! अब मैं बिदा होता हूं और पुनः आप से निवेदन करता हूँ कि आप सुरङ्ग को जलपूर्ण करने का शोध प्रबंध कीजिए।

आपका सञ्चा हितैषी,
 
एक अपरिचित ।
 

निदान, इस पत्र को पूर्ण करते ही महाराज बडी घबराहट के साथ उठ बैठे और अत्यत शीघ,-जहांतक होसका, अत्यंत शोध, वे विनोदसिंह के सोनेवाले कमरे में पहुंचे। विनोद उस समय तक जागरहेथे । सो उन्होंने ऐसी घबराहट के साथ महाराज के एकाएक आनेका कारण पूछा, जिसे महाराज ने बहुत संक्षेप में उन्हें समझा दिया । फिर उन्हें साथ लिए हुए वे (महाराज ) कई कमरे, बुर्ज,