दालान कोठरी और आगन को लाघ कर एक ऐसे मकान में पहुंचे, जिसमे बहुत से कल-पुरजे बने हुए थे।वहा पहुंच और सुरङ्गवाले चरखे के चिन्ह को दिए के उजाले में जांचकर उन्होंने उसे घुमाना प्रारम्भ किया गौर जब वह घूमते घूमते घुमाव पर रुक गयातो वे दोनों उस कोठरी मे से निकल कर एक दूसरे सुसजित कमरे मे आबैठे और वहां महाराज ने विनोदसिंह को उस अपरिचित का वह पत्र दिखलाया।
निदान, रात भर वे दोनों मारे घबराहट के उसी कमरे मे बैठे रह गए और प्रातःकाल होने पर जब सुरक्षा का पानी साफ किया गया तो उस अपरिचित व्यक्ति के कथनानुसार उसके भीतर से पचास लाशें निकली!!!
उस अपरिचित ने सचमुच उस सुरङ्ग के प्रवेशद्वार को बंद कर दिया था, जिससे वे अभागे, भाग न सके और सबके सब अपने पाप के फल को पागए।
इसके उपरान्त वह सुरङ्ग अत्यत दृढ़ता से भीतर ही भीतर कुछ दूरतफ चुनकर बद करदी गई।
पाठक, अपरिचित ने यह कितना बड़ा एहसान महाराज पर किया था! आह! जब वे उसे सोचते तो अपने चित्त में यही कहते कि,-'अब हम किस प्रकार उस अपरिचित के इस उपकार का प्रत्युपकार कर सकते हैं ? क्योंकि जैसा उपकार अपरिचित ने किया था, उसके बदले मे यदि सारे संसार की सम्पत्ति उसे दे दीजाती, तो भी उसके उस उपकार के प्रत्यकार की बराबरी
नही होसकती थी।