(६) मल्लिकादेवी। [पन्द्रहवा पन्द्रहवां परिच्छेद. स्थिरमंतव्य । "यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।" (अग्निपुराण) PREM प्रातःकाल सुविस्तृत वङ्गभूमि के एक प्रान्त में अपूर्व आ दृश्य दीख पडता है !! नवगांव से कोई चार कोस Sharma पश्चिम सेनासागर शिविर मनिवेशित करके पड़ा है। कहीं हाथी,कहीं घोडे,कही ऊट,कही खञ्चर,कहीं भार. वाहोवृषभों के झुण्ड के झुण्डखंटों मे बधे परस्पर कल्लोल फररहे हैं। निज निज ब्यापार मे सैनिकगण आतुरता से लगे हैं। कहीं रसिकगण परस्पर हास विलास कर रहे हैं। कोई अश्वों को फेरते और कोई परस्पर कृत्रिम युद्ध करते हैं। सेनानिवेश के भीतर सैकड़ों पटमंदिर (तंबू) खड़े हैं, उनके मध्य मे एक अत्युच्च प्रकांड डेरा रेशम और कलायत्त तथा ज़रदोजो काम की उत्तमता से चमचमाता हुमा,सूर्य के कर से अपना कर मिला रहा है। सेना में कोलाहल से कान पड़ी नहीं सुनाई देती है। प्रहर दिन चढ़ा होगा,इसी अवसर में एक गश्वारोही वेगपूर्वक अश्वचालन करते करते चला आता था। उसने अनिवार्य गति से शिविर में प्रवेश किया। उसे देखकर उसके अमानुषिक तंजापुञ्ज और वीरवेश से सब चमत्कृत होकर जहां तहां चित्रलिखे से खड़े रह गए। किसीकी भी सामर्थ्य नहीं हुई कि उसके सन्मुख जाकर उसके मागमन का वृत्तान्त पूछ,वा उसकी अनिवार्य गति कारोधफरी । युवा निःशङ्कचित्त से सर्वोत्तम पटमन्दिर के द्वारपर अपनीत होकर खड़ा हुआ । वहा सहस्रशः शमनसदृश प्रहरीगण शस्त्र लिये द्वाररक्षा में नियुक्त थे। युवा को देखकर सभी ससंभ्रम खड़े होगए। युवा ने एक यवन प्रहरी से प्रश्न किया,-"बादशाह-सलामत नित्यकत्य से निश्चित हाचुके हैं ?" प्रहरी,-"जी,ठीक नही कहसकता,मगर दर का वक्त करीब है। अश्वारोही,-"दिल्लीश्वर की सेवा में कुछ निवेदन करस फतेहौ।
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