सत्रहवां परिच्छेद.
रक्षा।
" स रक्षिता रक्षति यो हि गर्ने ।
नीतिमाला)
धीरात का समय होगा, जब सैकड़ों सैनिकों के मध्य
आ मे एक पालकी प्रशस्त राजपथ से चली जाती थी।
Matce सैनिक सभी पैदल थे और नङ्गी तल्वार तथा गनेक
शस्त्रो से सुसजित थे । सब चुपचाप दबे पैर चले जाते थे। योंही
कई फीस गतिक्रम करके उनलोगों ने एक निविड बन के दुर्गम
मार्ग से चलना प्रारम्भ किया। यह बन यद्यपि सघन था, किन्तु
भयङ्कर जन्नुपूर्ण नहीं था। आम्र के वृक्षों की अधिकता से इसे
लोग 'आम्रकानन' कहते थे। यद्यपि ज्योत्स्नामयो रजनी थी.
तथापि श्रेणीवद्ध वृक्षों के कारण बन मे ज्योत्स्ना को प्रवेश नहीं
होने पाता था। थोड़ी दूर जाने पर अबला के कण्ठ से निकली
आर्तध्वनि श्रवणगोचर हुई । यह सुनते ही एकाएक पालकी में से
मुख निकाल कर एक युवक ने पालकी खड़ी कराई । आज्ञापातेही
पालकी वहीं ठहरी और तब सब सैनिक वीं ठहर गए।
युवा ने शिविका से मुख निकाल सैनिको को एकत्र करके
कहा,-"भई ! कुछ सुनते हो ? यह किसके रोने की ध्वनि सुनाई
देली है ?"
उनमें से एक सैनिक ने कहा,-" महाराज! स्त्रीकंठ का
आर्तनाद जान पड़ता है । देखिए ! वहां पर कुछ हलका प्रकाश भी
चमक रहा है, जो बहुत दूर नहीं होगा।"
युवक,-" खड्गसिह ! किसी दुर्वत्त दस्यु के हाथ मे पड
कर निःसहाया अबला अतिशय मर्मयातना भोग रही होगी; अतएव
अब बिना उसका उद्धार किए, आगे जाना,मनुष्यता और क्षत्रियत्व
' खड्गसिह ने महाराज को रोक कर बिनयपूर्वक कहा,-
"यथेष्ट हुआ,' प्रभो! अब आज्ञा दीजिए तो अभी उस दुष्ट को
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[सत्रहवां
मल्लिकादेवी