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[सत्रहवां
मल्लिकादेवी।

विशेष प्रशसा क्या है ! और इस कार्य मे ईश्वर की महिमा ही को अशेष धन्यवाद देना चाहिए और साथ ही उस व्यक्ति की, जिसकी सहायता से हम तुम्हारे उद्धार करने में समर्थ होसके।"

सरला ने प्रकृतिस्थ होकर कहा,-"महाराज! आप वस्ततः स्वर्गीय पुरुष हैं । हाय ! आज आपसे मन्दिर मे साक्षात की बात थो, पर यहां आप किस प्रकार आगए!"

महाराज,-"सरला! हम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मंदिर मे अकेलेही गए थे, पर उसे भग्न और मानवशून्य देख कर हमने यह निश्चय किया कि तुमलोग कहीं कार्यवशात् स्थानान्तर में गई होगी ! ऐं प्यारी मल्लिका ! तुम अब क्यों व्यर्थ आसू गिरा रही हो ? शांत होवो।"

सरला,-"महाराज! आज मध्याह्न के समय यवनों ने हमलोगों को धूत किया और यहां तक वे हमें ले गाए । उनकी बातों से विदित हुआ कि वे तुगरल के गुप्तचर थे। उन लोगों ने बहुत प्रलोभन दिया, पर फल न पाने से बलप्रयोग करने का विचार वे कर रहे थे, सोही ईश्वर ने आपको भेज फर परित्राण कराया।"

पाठकों को यह वृत्तान्त विदित है कि उसीभग्नमंदिर मे से सरला और मल्लिका को यवन बांध लेगए थे। और यह भी पाठक जानते हैं कि अपने प्रतिज्ञानुसार महाराज नरेन्द्रसिंह एकाकी मल्लिका से मिलने के लिये पुनः उस नियत तिथि (पूर्णिमा ) को उस मन्दिर में गए थे; परन्तु वहां पहुंचकर उन्होंने मल्लिका के रहने के स्थान को बिल्कुल शन्य और उजाड़ पाया। उसी समय वहां पर महाराज से वह पूर्वपरिचित, अपरिचित व्यक्ति मिला और उसने सरला तथा मल्लिका का यवनों के हाथ में पड जाने का वृत्तान्त संक्षेप में कहा और उन्हें अति शीघ्र उस नियत स्थान पर बुलाया, जहां पहुंचने पर वह अपरिचित व्यक्ति वृक्ष पर से कूद कर महाराज से मिला और उन्हे आततायी यवनों पर छापा मारने के लिये कहकर वहांसे चला गया था।

निदान,महाराज ने सरला और मल्लिका से उस अपरिचित की सम्पूर्ण सहायताओं का हाल, जो कुछ कि उसने अब तक की थीं, संक्षेप में कह कर अन्त में यों कहा,-" यदि आज भी उस अपरिचित ने उस भग्नमदिर मे उपस्थित रह कर हमारा उपकार