पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद]
(९६)
वङ्गसरोजिनी।

न किया होता तो हम इतनी जल्दी तुमलोगों के उद्धार करने में कदापि समर्थ न होते । किन्तु, हा, इतने कष्ट तुमलोगों को हमारे हो कारण उठाने पड़े थे, क्योंकि यदि हम उस दिन वहां पर उस बेपरवाही के साथ अपने घोड़े को न छोड़ देते तो उसमान को कदापि तुम्हारे गुप्त निवासस्थान का पता न लगता।

ये बाते जब तक होती रहीं, मल्लिका और नरेन्द्र नयनों का सुख लूट रहे थे। यह भाव सरला ने जाना और आनन्द भी माना। फिर वह छल कर वहासे सरक गई, अतएव अवसर देखकर महाराज ने मल्लिका का सादर हाथ पकड़ कर अपने उत्तरीय से उसके नेत्र पोंछ कर कहा,-"प्यारी, मल्लिका ! अब व्यर्थ क्यों आंसू बहाती हो ? इससे क्या हमें कष्ट न होगा?"

मल्लिका ने महाराज के कधे पर अपना सिर धर कर कहा,- "प्राणनाथ ! ये आनदाथ हैं, मैने तो समझा था कि अब इस जन्म में आपके चरणों के दर्शन से वंचित रहूंगी, पर मैं महा भाग्यवती हूं।"

महाराज,-"निःसदेह, तुम बड़ी भाग्यवती हो, किन्तु तुमसे हम अधिक भाग्यवान हैं। यो कहकर महाराज ने उसे गले लगाकर उसका गाल चूम लिया जिससे मल्लिका ने अति लजित होकर कहा,-" यह क्या प्यारे ! कोई देखेगा तो क्या कहेगा!"

महाराज,-"तो तुम हमें चित्त से नहीं चाहती ?"

मल्लिका,-"यह वचन बडे कठोर हैं, इसका उत्तर मैं क्या दूं?"

इसके अनतर महाराज ने अपने गले से एक मोती की माला उत्तार मल्लिका के गले में डालकर कहा, "इसे देख कर तुम्हें सदा हमारा स्मरण बना रहेगा, और अधिक क्या कहैं ?"

मल्लिका,-" वो क्या मैं कभी तुम्हें स्मरण नहीं करती? यह बचन क्या कोमल है!

महाराज,-" तो फिर क्यों विवाद करती हो!"

मल्लिका,-"मैं इसके परिवर्तन में तुम्हें क्या हूँ ? "

महाराज,-"परिवर्तन की क्या आवश्यकता है ? पर हां यदि यही तुम्हारी इच्छा हो तो जो चाहो सो दो। हम उसे हृदय से स्वीकार करेंगे!"

मल्लिका की मां ने उसे एक मोती की माला दी थी, उसने उसे