पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद]
(९५)
वङ्गसरोजिनी।

बालिका अपना सब परिचय उन्हें दे चुकी थी, किन्तु कुछ समझ बूझ कर उस समय विनोद ने बिलकुल झूठ कहा । अस्तु ।

नरेन्द्र,--"ठीक है, हमने भी इस वन में यवनों के हाथ से इन दो स्त्रियों का उद्धार किया है।"

पाठक! गत किसी परिच्छेद में जिस बालिका का एक युवक मे उद्धार किया था, वह विनोद ही थे। यह आप लोगों को विदित ही है कि जब वन में रात्रि के समय महाराज और विनोद का सङ्ग छूट गया था,तो विनोद ने दूतों को इधर उधर भेज कर महाराज का अनुसंधान कराया था, पर कहीं पतान लगा था। अन्त में महाराज बादशाह से मिल कर राज्य पर गाए थे और नियत समय पर मल्लिका से मिलने के लिये गए थे, पर जब वहा उस अपरिचित ने कुछ और ही वृत्तान्त सुनाया तो वे अपने सेनानिवास में पहुंच, खड्गसिंह तथा कुछ सैनिकों के साथ इधर आए थे और विनोद को कुछ सवारों के साथ पीछे से आने के लिये एक पत्र लिखकर रख आए थे, क्योंकि उस समय विनोद सेनानिवास में गश्त लगाने चले गए थे। सोही विनोद मार्ग में उस बालिका का उद्धार करके उसे अपने साथ लिये हुए महाराज से आ मिले थे।

इधर ये बाते हो रही थी कि मल्लिका ने "हाय ! बहिन,सुशीला तू यहां कहां!" यों कहकर विनोद जिस बालिका को लाये थे,उसे गले लगा कर रोदन करने लगी। इस दृश्य से सब चमत्कृत हुए ।

नरेन्द्र ने कहा, "यह क्या कौतुक है ! सरला! यह बालिका कौन है ?"

सरला.--"महाराज! यह गतिशय आश्चर्यमय दृश्य है, किन्तु एक भिक्षा है, यदि मिले।

नरेन्द्र,--"ऐसी कौन वस्तु है, जो तुम्हें नहीं देसकते?"

सरला,--"इस लड़की को जबतक कि आप हमलोगों का पूर्ण परिचयन पाय,हमारे सङ्ग कर दें।इसे हमलोग अपने यहां लेजायंगी।"

नरेन्द्र,--"क्यों, यह क्या कह रही हो? इसमें भी क्या कुछ रहस्य है ?

सरला,--"निःसंदेह, किन्तु आपसे इतना ही फहती हूं कि यह मल्लिका की छोटी नहिन है।"

यह सुन कर विनोद और नरेन्द्र के मुख का रङ्ग दमक उठा