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[सत्रहवां
मल्लिकादेवी।

और नरेन्द्र ने कहा,-"सरला! यह सुशीला क्या मल्लिका की बहिन है ? पहिले तो हमने इसे नही देखा था !"

सरला,--"महाराज ! शान्त होइए, इसमें विशेष वक्तव्य है. आप से तय सविस्तर निवेदन करूंगी, जब पुनः आपसे मिलंगी।"

नरेन्द्र ने विनोद की ओर देखा और उनका भाव समझ कर विनोद ने कहा,--"इसमें मुझे कुछ भी आपत्ति नहीं है, जब कि सुशीला का उन लोगों से संबन्ध है। यदि सुशीला भी ऐसाही चाहती हो तो यह इन लोगो के साथ जा सकती है।"

अनंतर नरेन्द्र ने सुशीला की इच्छा जान कर सरला से कहा- "अब का इच्छा है ? कहा जाओगी ? उसी मयानक मन्दिर में?"

सरला,--"नही महाराज! वहां अब हमलोग निरापद नहीं रह सकेंगी, क्योंकि शत्रुओं ने हमारा पता जान लिया है। "

नरेन्द,--"तब कहा जाओगी ?"

सरला,--"एक दूसरी जगह जाऊंगी।"

नरेन्द्र--"कहा ? वह जगह कहा पर है ?"

सरला,--"दासी का अपराध क्षमा हो तो कुछ निवेदन करे ?"

नरेन्द्र,--"छिः ! यह बात तुम्हें शोभा देती है ? अभी तक तुम इनानी चापलूसी क्यों करती जाती हो?"

सरला--"जय तक आगामी वार आपसे साक्षात् न हो, कृपा कर दासी से कुछ भी परिचय की जिज्ञासा न करें, फिन्त यह प्रण करती हूं कि अबकी बार अवश्य सब रहस्य आपसे कहूंगी!"

नरेन्द्र,--"सरला ! हमारा प्राण विकल होरहा है। क्या अब भी हमारा विश्वास तुम्हें नहीं है ?"

सरला,--"है, महाराज! इस बात का ईश्वर साक्षी है; पर कई कारणों से अभी मैं कुछ कह नहीं सकती।"

नरेन्द्र,--"तुम्हारी बातों ने हमें अत्यत चचल कर दिया है।"

सरला,--"थोडा और धीरज धरिए । "

नरेन्द्र,--"अच्छा पालकी तैयार है, उस पर तुमलोग सवार हो जाओ; हम सैनिकों को संग करके तुम्हें निरापद तुम्हारे स्थान पर पहुंचा देंगे। मग्ला,--"किन्तु, एक प्रकार से।"

नरेन्द्र,--"क्या !"