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पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/६४

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(६१)

को ऐसी दशा में पहिनना कब उचित कहा जा सकता है कि जब मेरी प्रजा दाने को तरसती हो।"

(४) दमिश्क़ में एक बार ऐसा अकाल पड़ा कि बड़ी बड़ी नदियां और नाले सूख गये, और पानी का कहीं नाम न रहा। कहीं था तो अनाथों की आंखों में। यदि किसी घर से धुआं उठता था तो वह चूल्हे का नहीं किसी विधवा, दीनों की आह का धुआं था। उस समय मैं ने अपने एक धनवान मित्र को देखा, जो उदासीन, सूख कर कांटा हो गया था। मैंन कहा, भाई तुम्हारी यह क्या दशा हो रही है, तुम्हारे घर में किस बात की कमी है? यह सुनते ही उसके नेत्र सजल हो गये। बोला, मेरी यह दशा अपने दुःख से नहीं, वरन दूसरों के दुःख से हुई है। अनाथों को क्षुधा से बिलखते देखकर मेरा हृदय फटा जाता है। वह मनुष्य पशु से भी नीच है जो अपने देशवासियों के दुःख से व्यथित न हो।

(५) एक दुष्ट सिपाही किसी कुंए में गिर पड़ा। सारी रात पड़ा रोता चिल्लाता रहा। कोई सहायक न हुआ। एक आदमी ने उलटे यह निर्दयता की कि उस के सिर पर एक पत्थर मार कर बोला कि दुरात्मा, तूने भी कभी किसी के साथ नेकी की है आज दूसरों से सहायता की आशा रखता है। जब हज़ारों हृदय तेरे अन्याय से तड़प रहे हैं, तो तेरे धायों की सुधि कौन लेगा। कांटे बो कर फूल की आशा मत रख।