पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/६५

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(६) एक अत्याचारी राजा देहातियों के गधे बेगार में पकड़ लिया करता था। एक बार यह शिकार खेलने गया और एक हिरन के पीछे घोड़ा दौड़ाता हुआ अपने आदमियों से बहुत आगे निकल गया। यहांतक कि संध्या हो गई। इधर उधर अपने साथियों को देखने लगा। लेकिन कोई देख न पड़ा। विवश होकर निकट के एक गांव में रात काटने की ठानी। वहां क्या देखता है कि एक देहाती अपने मोटे ताजे गधे को डंडों से मार मार कर उसके धुएँ उड़ा रहा है। राजा को उसकी यह कठोरता बुरी मालूम हुई। बोला, अरे भाई क्या तू इस दीन पशु को मार ही डालेगा? तेरी निर्दयता पराकाष्ठा को पहुंच गई। यदि ईश्वर ने तुझे बल दिया है तो उसका ऐसा दुरुपयोग मत कर। देहाती ने बिगड़ कर कहा तुम से क्या मतलब है? मैं जाने क्या समझ कर इसे मारता हूं। राजा ने कहा, अच्छा बहुत बक-बक मत कर, तेरी बुद्धि भ्रष्ट होगई है, शराब तो नहीं पी ली? देहाती ने गम्भीरभाव से कहा मैंने न शराब पी है, न पागल हूं, मैं इसे केवल इसी लिये मारता हूं जिस में यह इस देश के अत्याचारी राजा के किसी काम का न रहे। लंगड़ा और बीमार होकर मेरे द्वार पर पड़ा रहे, यह मुझे स्वीकार है। लेकिन राजा को बेगार में देना स्वीकार नहीं। राजा यह उत्तर सुनकर चुप रह गया। रात तारे गिन-गिन कर काटी। प्रातःकाल उसके आदमी खोजते हुए वहां आ पहुंचे