पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/९१

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में पहुंचे तो एक आदमी को मस्जिद के द्वार पर बैठे देखा जिस के पांव ही नहीं थे। उसकी दशा देख कर सादी की आंखें खुल गईं। मस्जिद से चले आये और ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने उन्हें पांव से तो वञ्चित नहीं किया। ऐसी शिक्षा इस बीसवीं शताब्दि में कुछ अनुपयुक्त सी प्रतीत होती है। यह असन्तोष का समय है। आजकल सन्तोष और उदासीनता में कोई अन्तर नहीं समझा जाता। और समाज की उन्नति असन्तोष की ऋणी समझी जाती है। लेकिन सादी की सन्तोषशिक्षा सदुद्योग की उपेक्षा नहीं करती। उनका कथन है कि यद्यपि ईश्वर समस्त सृष्टि की सुधि लेता है लेकिन अपनी जीविका के लिए यत्न करना मनुष्य का परम कर्तव्य है।

यद्यपि सादी की भाषा लालित्य का हिन्दी अनुवाद में दर्शाना बहुत ही कठिन है तथापि उनकी कथाओं और वाक्यों से उनकी शैली का भली भांति परिचय मिलता है। निस्संदेह वह समस्त साहित्यसंसार के एक समुज्ज्वल रत्न हैं, और मनुष्यसमाज के एक सच्चे पथप्रदर्शक। जब तक सरल भावों को समझने वाले, और भाषा लालित्य का रसास्वादन करने वाले प्राणी संसार में रहेंगे तब तक सादी का सुयश जीवित रहेगा, और उनकी प्रतिभा का लोग आदर करेंगे।

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