पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१११

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- . विषयोंके शान्त हो जाने पर भी भीतर भीतर अगर रस रह जाता है, तो पर के दर्शन हुओ बिना विषय वासनाके जाग्रत होने की संभावना रह जाती है। साक्षात्कार होनेके बाद वासनामात्र असंभव हो जाती है। यानी पुरुष नरजाति .न रहकर नपुंसक हो जाता है। अिसका अर्थ यह हुआ कि वह अक न रहकर शून्य बन जाता है । दूसरे शब्दोंमें कहें तो वह परमेश्वरमें समा जाता है। जहाँ वासना नहीं रही, वहाँ रस भी क्या और विषय भी क्या ? अिस तरह बुद्धिको तो यह बिलकुल सीधा लगता है । यहाँ 'पर' और जहाँ जहाँ श्रीश्वर, ब्रह्म, पर- ब्रह्म वगैरा शब्द आते हैं, वहाँ वहाँ सत्य' शब्द अिस्तेमाल करके अर्थ करने और समझनेसे वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जायगी और साक्षात्कारका अर्थ भी आसानीसे समझमें आ जायगा । यह खेल आत्म-वंचनाका नहीं है । आश्रममें जो कुटुम्ब भावनाके नाम पर अन्तरमें विषयोंका सेवन करते होंगे, वे तो तीसरे अध्याय वाले मिथ्याचारी हैं । हम यहाँ सत्याचारीकी बात कर रहे हैं । और यह सोच रहे हैं कि सत्याचारीको क्या करना चाहिये। अिसलिो आश्रममें अगर ९९ फीसदी लोग कुटुम्ब भावनाका ढोंग करके विषयोंका सेवन करते हों, तो भी अगर १ फीसदी भी बाहर और भीतरसे केवल कुटुम्ब भावनाका ही सेवन करते हों, तो अिससे आश्रम कृतार्थ हो जायगा । और अिससे आश्रमका सोचा हुआ आचरण झुचित माना जायगा । अिसलिमे हमें यह नहीं सोचना है कि दूसरा क्या करता है। हमें तो यही विचार करना है कि अपने लिये क्या हो सकता है। अिसके साथ ही साथ अिवना तो सही है ही कि किसीका महल देख कर हम अपनी झोंपड़ी न अखाड़ें । कोभी कुटुंम्बभावनासे रह सकनेका दावा करे, मगर हम अपनेमें यह शक्ति न पायें तो असके दावेको स्वीकार करते हुओ भी हम तो कुटुम्बकी छूतसे दूर ही रहें । आश्रममें हम अक नया, और अिसलिले भयंकर प्रयोग कर रहे हैं। अिस कोशिशमें सत्यकी रक्षा करते हुओ जो धुलमिल सकें, वे घुलमिल जायें । जो न घुलमिल सकें, वे दूर रहें। हमने जैसे धर्मकी कल्पना नहीं की है कि आश्रममें सभी सब तरहसे स्त्री मात्रके साथ बुलेंमिले। जिस तरह घुलने-मिलनेकी हमने सिर्फ छूट रखी है । धर्मका सेवन करते हु जो अिस छूटको ले सकता है, वह ले ले । मगर अिस छूटके लेनेमें जिसे धर्म खो बैठनेका डर है, वह ~आश्रममें रहते हुझे भी---- अससे सौ कोस दूर भाग सकता है । अक आश्रमवासी . को अपनी लड़की समझ सकता है और असी तरह असके साथ व्यवहार रखना चाहिये । मगर दूसरा आश्रमवासी अिच्छा होते हुझे भी जैसा व्यवहार मनमें पैदा न कर सके, तो असका धर्म है कि वह.. . .का संग छोड़ दे । मैंने यहाँ मृत देहकी मिसाल दी है। जैसा दृष्टान्त लेनेमें भी शायद दोप हो. तो अिन दोके बजाय 'अ' 'ब' समझ लिये जायें । 'क' का मन 'बक १०८