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पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१७२

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(नारणदासकी तरफसे) कि हरिलालको बापूने जो पत्र लिखा था और जो अन्हें तीन हफ्तेसे नहीं मिला था, वह मिल गया है ! छगनलाल जोशीको आज लम्बा खत लिखवाया । उसके पत्रमें बापके 'अद्भुत त्याग'वाले लेखका. अनर्थ था । असमें कहना यही था कि पानी न पीनेवाले सिपाहियोंने अद्भुत त्याग दिखाया। मगर छगनलालने तो बुद्धिका प्रयोग किया और पूछा "पानी पिलानेवाला अपना धर्म नहीं चूका ? वह तो सबको पानी पिला सकता था ।" बापूने लिखा "यहाँ पानी ले जानेवालेकी न स्तुतिका सवाल है न निन्दाका। मगर विचार करके देखोगे तो मालूम हो जायगा कि पानी पिलानेकी बात पानी ले जानेवालेके हाथमें थी ही नहीं। यहाँ पर यह सवाल भी मुख्य नहीं है कि पानी तीनोंके लिअ काफी था या नहीं। मगर पहले दो सिपाहियोंका आर्तनाद सुनकर अन दुखियोंको पानी मिले बिना अन्होंने खुद पानी पीनेसे अिनकार कर दिया । असी हालतमें पानी ले जानेवालेके स्वधर्म छोदनेकी बात ही नहीं थी । असा मालूम होता है कि अिस दृश्यका चित्र तुम्हारे सामने खड़ा नहीं हुआ। पानीकी प्यास जैसी चीज है कि मनुष्य दूसरेकी परवाह नहीं करता और पानी मिले तो खुद पी लेता है । ये लोग तो बेचारे मौतके किनारे पड़े थे। मगर असे समय भी अन्होंने अपनी अदारता नहीं छोड़ी और जिस तरह अन्तकाल तक बाही स्थिति रखी । पानी ले जानेवाला केवल नि:पाय था, और जहाँ प्राण निकलने में कुछ पल बाकी हों, वहाँ कहीं यह हो सकता है कि घायलोंके साथ वहस की जाय ? अिन सब बातों पर दुबारा विचार कर लेना, और विचार करोगे तो मालूम होगा कि यह अतिहासिक घटना भव्य और सम्पूर्ण त्यागका दृष्टान्त है और जिसमें निमित्त बननेवाले पानी ले जानेवालेकी आलोचना करनेका कुछ भी कारण नहीं रह जाता । ज्यादातर अितिहासमें असे सम्पूर्ण दृष्टान्त नहीं मिलते । कुछ न कुछ खामी कहीं न कहीं रहती ही है। मगर मेरी दृष्टिसे जिसमें कहीं खामी नहीं पाी जाती।" दरवारी साधुको कस्ती और सदरेमें कोी अर्थ न दीखनेसे असने अन्हें छोड़ दिया है। अिससे असके सगे सम्बंधियोंको दुःख होता है । उन्हें बापूने लिखा " दरवारीसे कहना कि असे कस्ती और सदरा (पारसियोंकी अक पोशाक) छोड़नेकी कुछ भी जरूरत नहीं थी। और यही अच्छा है कि वह वापस जाय तब पहन ले । अिसके पहननेमें पाप नहीं है और न अन्धविश्वास है । पहननेसे किसीका नुकसान नहीं और न पहननेसे पारसियोंको चोट पहुँचती है । अिस तरह बिना कारण चोट पहुंचाना सेवकका काम नहीं होता और जिसमें अहिंसाका भंग है । अितना काफी है कि अपने दिलमें असके बारेमें गलत आदर न हो । सुसमें समाी हुी बुतपरस्ती निकल जानी चाहिये । और १६९